क्या आपने कभी सोचा है कि जनवरी, फरवरी, मार्च जैसे महीने हमारे जीवन में कैसे आए? क्या वास्तव में वैदिक भारत में भी साल को 12 हिस्सों में बाँटा गया था? यदि आपका उत्तर ‘हाँ’ है, तो आपको जानकर हैरानी होगी कि वर्तमान के 12 महीनों के नाम और उनकी संरचना प्राचीन भारतीय प्रणाली से बिल्कुल भिन्न हैं। वैदिक ऋषियों ने समय को सूर्य की गति, ऋतुओं और नक्षत्रों के आधार पर मापा, जबकि आधुनिक कैलेंडर रोमन साम्राज्य की परंपरा का हिस्सा है।
“12 Months Name in Hindi” सिर्फ एक सामान्य विषय नहीं, बल्कि एक ऐसा रहस्य है जो हमारे समय, संस्कृति और इतिहास से गहराई से जुड़ा हुआ है। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे महीनों का नामकरण हुआ और उनका अर्थ क्या था —- नमस्ते! Anything that makes you feel connected to me — hold on to it. मैं Laalit Baghel, आपका दिल से स्वागत करता हूँ 🟢🙏🏻🟢
अच्छा आपने वैदिक समय गणना प्रणाली को समझा उसी प्रकार, महीनों और साल में दिनों की संख्या की गणना के बारे में जाना और आज हम 12 Months Name in Hindi अर्थात् ऋग्वेद के समय में 12 महीनों के क्या नाम थे और उनका वैदिक समय तक आते-आते नामकरण किस आधार पर हुआ था, इस पर भी चर्चा करेंगे, साथ-ही-साथ दिनों के नामकरण की विधि को भी समझेंगे तथा प्राचीन महीनों के नामों का विलय समय के साथ कैसे हुआ और आज हम आधुनिक माह के नामों को ही क्यों जानते हैं, इस पर भी चर्चा करेंगे।
भारतीय ग्रंथों में 12 महीनों का उल्लेख
तैत्तिरीय संहिता
तैत्तिरीय संहिता वेदों में से कृष्ण यजुर्वेद की एक प्रमुख शाखा है, जो वैदिक कर्मकांड, यज्ञ विधि और ब्रह्मांडीय सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन करती है। इसका नाम ऋषि तैत्तिरी से जुड़ा माना जाता है, जो यास्क, पाणिनि और महर्षि वाजसनेयी जैसे विद्वानों की परंपरा से सम्बंधित हैं। यह संहिता मुख्यतः यज्ञीय मंत्रों, ऋतुओं, देवताओं, और वैदिक काल की समय गणना से संबंधित विवरण प्रदान करती है।
यह ग्रंथ केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि खगोलीय और वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस संहिता में ऋतुओं और महीनों के नामों का वर्णन कुछ इस प्रकार दिया हुआ है:——
मधुश्च माधवश्च वासंतिकावृतू शुकश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू
इषश्चोर्जश्च शारदावृतू सहश्च सहस्यश्च
हैमंतिकावृतू तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू।।
अर्थ — वसंत ऋतु के दो महीने हैं, मधु और माधव; ग्रीष्म ऋतु के दो महीने हैं, शुक और शुचि; वर्षा के दो महीने हैं, नभ और नभस्य; शरद के दो महीने हैं, सह और सहस्य; शिशिर के दो महीने हैं, तपस और तपस्य।
वाजसनेयी संहिता
वाजसनेयी संहिता, शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख शाखा है, जिसे महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्रणीत किया था। यह संहिता तैत्तिरीय संहिता से बाद की मानी जाती है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें यज्ञों में प्रयुक्त मंत्रों को सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। वाजसनेयी संहिता दो भागों में मिलती है – काण्व शाखा और माध्यंदिन शाखा, जिनमें से माध्यंदिन शाखा अधिक प्रचलित है। इसमें यज्ञ, ब्रह्मांड की रचना, ऋतुओं का चक्र, ग्रहों की चाल और वैदिक ज्योतिष के आधारभूत सूत्रों का उल्लेख मिलता है।
यह संहिता वैदिक विज्ञान, दर्शन और खगोलशास्त्र के गहन सूत्रों से परिपूर्ण है और वैदिक संस्कृति में धर्म और विज्ञान के संगम को दर्शाती है। इसमें उपर्युक्त बारह महीनों के अलावा 13 वें महीने का भी वर्णन है। वाजसनेयी संहिता के अनुसार 13 वां महीना लौंद का महीना होता था, जिसको उस ज़माने के लोग अहंसस्पति के नाम से पुकारते थे।
मधवे स्वाहा माधवाय स्वाहा शुकाय स्वाहा शुचये स्वाहा नभसे स्वाहा नभस्याय स्वाहेषाय स्वाहोर्जाय स्वाहा सहसे स्वाहा सहस्याय स्वाहा तपसे स्वाहा तपस्याय स्वाहांहसस्पतये स्वाहा।।
अर्थ — मधु के लिए स्वाहा, माधव के लिए स्वाहा, शुक के लिए स्वाहा, शुचि के लिए स्वाहा, नभ के लिए स्वाहा, नभस्य के लिए स्वाहा, इष के लिए स्वाहा, ऊर्ज के लिए स्वाहा, सह के लिए स्वाहा, सहस्य के लिए स्वाहा, तपस के लिए स्वाहा, तपस्य के लिए स्वाहा, अहंसस्पति (पाप के पति या मलमास) के लिए स्वाहा।
तैत्तिरीय ब्राह्मण
तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे ब्राह्मण साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है। इसका उद्देश्य वैदिक संहिताओं में वर्णित मंत्रों की विधियों, अर्थों और अनुष्ठानों की व्याख्या करना है। इसे तैत्तिरीय संहिता के बाद का ग्रंथ माना जाता है, और यह वैदिक कर्मकांड, यज्ञ की प्रक्रिया, देवताओं की महिमा और ब्रह्मांडीय व्यवस्था के रहस्यों को विस्तार से समझाने का कार्य करता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं का वैज्ञानिक वर्गीकरण, ग्रहों की स्थितियाँ और नक्षत्रों की भूमिका पर भी उल्लेख मिलता है, जो इसे केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि खगोलीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बनाता है।
यह ग्रंथ वैदिक परंपरा के उस युग का प्रतिनिधित्व करता है, जब ज्ञान और आस्था का गहन समन्वय था — जहाँ प्रकृति, ब्रह्मांड और मनुष्य को एक ही चेतना से जोड़ा गया था। उपर्युक्त जो आपने महीनों के नाम देखे वो तैत्तिरीय संहिता और वाजसनेयी संहिता में समान थे अर्थात् एक ही नाम थे। लेकिन तैत्तिरीय ब्राह्मण में महीनों के नाम अलग मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं:—-
अरूणोरूणरजाः पुंडरीको विश्वजिदभिजित्।।
आर्द्रः पिन्वमानोन्नवान् रसवानिरावान्स।। वौंषधः संभरों महस्वान्।।
अर्थ— महीनों के 13 नाम ये हैं:— 1) अरुण, 2) अरुणरज, 3) पुंडरीक, 4) विश्वजित्, 5) अभिजीत्, 6) आर्द्रा, 7) पिन्वमान, 8) उन्नवान्, 9) रसवान्, 10) इरावान्, 11) सवौंषध, 12) संभर, 13) महस्वान्।।
ऐतरेय ब्राह्मण
ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद से संबंधित एक अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण ब्राह्मण ग्रंथ है, जिसे ऋग्वैदिक कर्मकांडों की व्याख्या के लिए रचा गया था। यह ग्रंथ मुख्यतः यज्ञों की विधियाँ, अनुष्ठानों की प्रक्रिया और उन अनुष्ठानों के दार्शनिक एवं लौकिक उद्देश्यों पर केंद्रित है। इसका संबंध ऐतरेय आरण्यक और ऐतरेय उपनिषद से भी है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह परंपरा ज्ञान, आचरण और आत्मविज्ञान — तीनों को साथ लेकर चलती थी।
ऐतरेय ब्राह्मण में देवताओं की उत्पत्ति, यज्ञों के महत्व, ऋचाओं की भूमिका और पुरोहितों की जिम्मेदारियाँ स्पष्ट रूप से वर्णित हैं। इसमें कई ऐतिहासिक और मिथकीय आख्यान भी मिलते हैं जो वैदिक जीवन-दर्शन को रेखांकित करते हैं। इसे तैत्तिरीय ब्राह्मण की तुलना में भी प्राचीन माना जाता है, क्योंकि यह ऋग्वेद की परंपरा का अंग है, जो यजुर्वेद से भी पहले की मानी जाती है। इस ग्रंथ में जहाँ एक ओर गूढ़ वैदिक ज्ञान है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य भी देखने को मिलता है, जिससे यह वेदकालीन भारत के अध्ययन के लिए एक अत्यंत मूल्यवान स्रोत बन जाता है।
उपर्युक्त बताए गए धार्मिक ग्रंथों में महीनों के नामों का उल्लेख होने से यह तो पता चलता है कि प्राचीनतम मनुष्य महीनों का हिसाब समय को आंकने के लिए रखता था। उपर दिए गए प्रमाण के बाद तो तनिक भी संदेह आधुनिक मनुष्य के मस्तिष्क में नहीं रह जाता; अच्छा महीनों के साथ-साथ प्राचीन मनुष्य दिनों का हिसाब भी ठीक-ठीक रखता था। क्योंकि, वर्ष में 360 दिन होने का वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण में कुछ इस प्रकार है:—
त्रीणि च वै शतानि षष्टिश्च संवत्सरस्याहानि सप्त च वै शतानि विंशतिश्च संवत्सरस्याहोरात्रयः।।
अर्थ— तीन सौ साठ दिन का वर्ष होता है; वर्ष में सात सौ बीस दिन और रात होते हैं।
ताण्डय ब्राह्मण
ताण्ड्य ब्राह्मण अथवा पंचविंश ब्राह्मण सामवेद से संबंधित एक प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ है। इसका नाम “पंचविंश” इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें कुल पच्चीस अध्याय (अध्याय = प्रपाठक) होते हैं। इसे ताण्ड्य इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह ताण्ड्य ऋषि की परंपरा में रचा गया था। यह ग्रंथ सामगानों (सामवेद की ऋचाओं) के प्रयोग, यज्ञों में उनके स्थान, क्रम और महत्व की गूढ़ व्याख्या करता है।
इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य यज्ञों में सामवेदिक मंत्रों और गायनों की भूमिका को स्पष्ट करना है। इसमें अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम, वाजपेय, रजसूय आदि वैदिक यज्ञों की विधियों का अत्यंत सुव्यवस्थित विवरण मिलता है। साथ ही इसमें गान, स्वर-संयोजन और संगीत-शास्त्र की प्राचीन वैदिक धारा का परिचय मिलता है, जो इसे अन्य ब्राह्मण ग्रंथों से विशिष्ट बनाता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण की तुलना में, ताण्ड्य ब्राह्मण विशेष रूप से सामवेद की गायनपरक परंपरा से जुड़ा हुआ है, और इसीलिए यह कर्मकांड और संगीत दोनों का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है।
यह ग्रंथ न केवल धार्मिक अनुष्ठानों के नियमों को दर्शाता है, बल्कि वैदिक काल की सांगीतिक चेतना, सामाजिक संरचना और आचारशास्त्र का भी गहराई से चित्रण करता है, जिससे यह अध्ययन और शोध के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत बन जाता है। ताण्डय ब्राह्मण में भी वर्ष में दिनों की संख्या ठीक रखने के संदर्भ में एक वाक्य दिया है; जो रोचक सा प्रतीत होता है—
यथा वै दृतिराध्मात एवं संवत्सरोनुत्सृष्टः।।
अर्थ—यदि एक दिन न छोड़ दिया जाएगा तो वर्ष वैसे ही फूल जाएगा जैसे चमड़े की मशक।
वर्ष का विभाजन
ज्योतिष में वर्ष को दो बराबर भागों में बांटा जाता है। एक भाग को उत्तरायण और दूसरे भाग को दक्षिणायन कहते हैं। उत्तरायण उसको कहते थे जब सूर्य 6 महीने पृथ्वी के संदर्भ में उत्तर जाता रहता था और दक्षिणायन उसको जिसमें सूर्योदय बिंदु पूर्व बिंदु से दक्षिण हुआ करता था। इस संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता में लिखा है——
तस्मादादित्यः षष्मासो दक्षिणेनैति षडुत्तरेण।।
अर्थात् सूर्य 6 महीने दक्षिणायन रहता है और 6 महीने उत्तरायण।
महीनों के आधुनिक नाम
महीनों के नाम तैत्तिरीय संहिता में नभ, नभस्य आदि थे। इसका प्रमाण आपको मिल चुका है, लेकिन ये प्राचीन महीनों के नाम समय के साथ बदल गए और महीनों के नये नाम नक्षत्रों के आधार पर पड़े। जैसे, चैत्र माह जिसे देहाती भाषा में चैत का महीना कहते हैं। इसी प्रकार सभी महीनों के नाम भी नक्षत्रों के आधार पर ही पड़े। क्योंकि तैत्तिरीय संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ आदि इनके समकालीन ग्रंथों में चैत्र-फाल्गुन आदि नये माहों के नामों का वर्णन कहीं मिलता ही नहीं है। ये नाम तो बहुत समय पश्चात् के साहित्य में आते हैं। तब महीनों के नामकरण का सिद्धांत अमरकोष-कालवर्ग में कुछ इस प्रकार बताया है—–
अमरकोष-कालवर्ग
अमरकोष संस्कृत भाषा का सबसे प्रसिद्ध और प्राचीन कोश (थिसॉरस) है, जिसे अमर सिंह ने लगभग चौथी या पाँचवीं शताब्दी ईस्वी में रचा था। यह ग्रंथ मुख्यतः पर्यायवाची शब्दों का संग्रह है और तीन काण्डों में विभाजित है—स्वर्गवर्ग, भूमिवर्ग और कालवर्ग। कालवर्ग, विशेष रूप से समय, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, और नक्षत्र आदि की विस्तृत जानकारी देता है। कालवर्ग में बारह वैदिक महीनों के नामों की व्युत्पत्ति और उनका खगोलीय आधार बताया गया है,
पुष्ययुक्ता पौर्णमासी पौषी मासे तु यत्र सा।
नाम्ना स पौषो माधाघाश्चेवमेकावशा परे।।
जैसे कि पौष उस महीने को कहा गया जिसमें पुष्य नक्षत्र पूर्णिमा को आता है, माघ उस महीने को जिसमें मघा नक्षत्र पूर्णिमा के निकट होता है, और इसी क्रम में शेष महीनों के नामों की वैज्ञानिक और खगोलशास्त्रीय व्याख्या मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वैदिक और संस्कृत परंपरा में महीनों के नाम केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि खगोलीय गणना पर आधारित थे। अमरकोष का यह कालवर्ग न केवल भाषाशास्त्रियों के लिए बल्कि ज्योतिषविदों, इतिहासकारों, और खगोलविदों के लिए भी एक अमूल्य स्रोत है, क्योंकि यह दर्शाता है कि भारतीय समय-गणना प्रणाली कितनी सुनियोजित, खगोलीय, और सुसंगत थी।
सूर्य-सिद्धांत
सूर्य सिद्धांत भारतीय खगोलशास्त्र का एक अत्यंत प्राचीन और वैज्ञानिक ग्रंथ है, जिसे भारतीय ज्योतिष का प्राण कहा जाता है। यह ग्रंथ न केवल समय-गणना, ग्रहों की गति, और नक्षत्रों की स्थिति का उल्लेख करता है, बल्कि धरती की परिधि, व्यास, झुकाव, सूर्योदय-सूर्यास्त की गणना, और ग्रहण विज्ञान जैसे अनेक खगोलीय विषयों पर भी अद्भुत जानकारी प्रदान करता है। माना जाता है कि यह ग्रंथ हजारों वर्षों से मौखिक परंपरा से चलता आया और बाद में इसे लिपिबद्ध किया गया। आधुनिक विद्वानों का मत है कि इसका वर्तमान स्वरूप लगभग 4th से 5th शताब्दी ईस्वी का हो सकता है, लेकिन इसकी मूल संकल्पना कहीं अधिक प्राचीन वैदिक काल में निहित है।
सूर्य सिद्धांत की सबसे अद्भुत बात यह है कि इसमें दी गई गणनाएँ आज के आधुनिक खगोलशास्त्रीय मापदंडों से मेल खाती हैं। उदाहरण के लिए, पृथ्वी का व्यास और परिक्रमण गति जैसी बातें इतनी सूक्ष्मता और सटीकता से वर्णित हैं कि यह किसी भी वैज्ञानिक को चकित कर देती हैं। इस ग्रंथ में समय की इकाइयाँ – क्षण, लव, निमेष, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, और संवत्सर – को एक अत्यंत व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से जोड़ा गया है।
यही कारण है कि भारत की पंचांग परंपरा आज भी सूर्य सिद्धांत की गणनाओं पर आधारित होती है। यह न केवल वैदिक समयबोध का आधार है, बल्कि यह भी प्रमाण है कि भारत में वैज्ञानिक खगोलशास्त्र और ज्योतिष का गहरा संबंध रहा है। सूर्य-सिद्धांत में दिये हुए नियम के अनुसार—
नक्षत्रनाम्ना मासास्तु ज्ञेयाः पर्वान्तयोगतः।
अर्थ—पूर्णिमा के अंत में चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उसी के नाम पर महीनों के नाम पड़े हैं।
ये बदले नामों का समय बहुत लंबा है। क्योंकि, तैत्तिरीय संहिता ईसा के जन्म के 3000 वर्ष पुराना ग्रंथ है। ब्राह्मण तैत्तिरीय संहिता के बाद का ग्रंथ है। लेकिन नए मासों के नामों का उल्लेख इनमें से किसी भी ग्रंथ में नहीं है। परंतु वेदांग ज्योतिष में इन बदले महीनों के नामों का वर्णन अवश्य हुआ है जो सम्भवतः 1200 ईसा पूर्व का ग्रंथ है। अनुमानित तौर पर यह कहा जा सकता है कि महीनों के नामों में परिवर्तन लगभग 2000 ईसा पूर्व हुआ होगा।
वैदिक काल
वैदिक काल या अति प्राचीन समय में सप्ताह का कुछ महत्त्व नहीं था और न रविवार, सोमवार आदि नाम ही प्रचलित थे। ये नाम तो ग्रहों के आधार पर पड़े हैं और वेद, ब्राह्मण, संहिता आदि में इन नामों का कहीं उल्लेख भी नहीं है। उस काल में पक्ष और उसके उपविभाग चलते थे। पक्ष महीने में दो होते थे। इनका उल्लेख कई स्थानों में मिलता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में पक्ष के उपविभागों के नाम इस प्रकार हैं:—
संज्ञानं विज्ञानं दर्शा दृष्टेति।।
एतावनुवाकौ पूर्वपक्षस्याहोरात्राणां नामधेयाति।। प्रस्तुतं विष्टुतं सुतासुन्वतांति।। एतावनुवाकावपरपक्षस्याहोत्राणां नामधेयानि।।
अर्थ—- संज्ञान, विज्ञान, दर्शा, दृष्टा ये दो-दो करके पूर्व पक्ष के अहोरात्र (दिनरात) के नाम हैं। प्रस्तुत, विष्टुत, सुत, असुन्वत ये दो-दो करके अपर पक्ष के अहोरात्र के नाम हैं।
महीनों के नाम
12 Months Name in Hindi महीनों के नाम सदियों की संस्कृति, खगोल विज्ञान और परंपरा का परिणाम हैं। वैदिक काल में समय को सूर्य व चंद्रमा की गति के अनुसार समझा और विभाजित किया गया था, इसलिए वहाँ महीनों के नाम प्रकृति और ऋतुओं से जुड़े थे — जैसे चैत्र, वैशाख, आषाढ़ आदि। वहीं दूसरी ओर आधुनिक अंग्रेज़ी कैलेंडर, जिसे ग्रेगोरियन कैलेंडर कहते हैं, वह पूरी तरह रोमन सभ्यता पर आधारित है। इसमें महीने के नाम देवताओं, संख्याओं और सम्राटों से लिए गए हैं — जैसे January, March, August आदि। इन दोनों प्रणालियों में सोच, विज्ञान और संस्कृति का भिन्न दृष्टिकोण है। वैदिक और रोमन महीनों के नामों की तुलना निम्नलिखित तालिका से समझते हैं।
नक्षत्र आधारित माह नाम | आम बोलचाल भाषा आधारित माह नाम | ग्रेगोरियन आधारित माह नाम |
चैत्र | चैत | मार्च-अप्रैल |
वैशाख | वैशाख | अप्रैल-मई |
ज्येष्ठ | जेठ | मई-जून |
आषाढ़ | अषाढ | जून-जुलाई |
श्रावण | सावन | जुलाई-अगस्त |
भाद्रपद | भादौ | अगस्त-सितंबर |
आश्विन | क्वार | सितंबर-अक्तूबर |
कार्तिक | कातिक | अक्टूबर-नवंबर |
मार्गशीर्ष | अगहन | नवंबर-दिसंबर |
पौष | पूष | दिसंबर-जनवरी |
माघ | माह | जनवरी-फरवरी |
फाल्गुन | फागुन | फरवरी-मार्च |
सप्ताह के दिनों का रहस्य
रविवार के बाद सोमवार ही क्यों आता है?
हम सभी सप्ताह के सात दिनों—रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार—के क्रम से परिचित हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि रविवार के बाद सोमवार ही क्यों आता है? मंगलवार या बुधवार क्यों नहीं?
पहली दृष्टि में यह समझ आता है कि सप्ताह की शुरुआत रविवार से होती है क्योंकि सूर्य हमारे सौरमंडल का सबसे प्रमुख और शक्तिशाली ग्रह (देवता) है। वह प्रकाश, ऊर्जा और जीवन का स्रोत है। किंतु यदि यह क्रम सूर्य की महत्ता या आकार के आधार पर होता, तो फिर दूसरे स्थान पर बृहस्पति (सबसे बड़ा ग्रह) का दिन आना चाहिए था—यानी रविवार के बाद गुरुवार।
इसी प्रकार, यदि ग्रहों की सौर दूरी के आधार पर दिन तय होते, तो सूर्य के बाद बुध आता है, इसलिए रविवार के बाद बुधवार होना चाहिए था। लेकिन वास्तविकता यह है कि रविवार के बाद सोमवार ही आता है, और इसके पीछे छिपा है — भारतीय ज्योतिषीय ज्ञान का रहस्यपूर्ण और वैज्ञानिक तंत्र जिसे “होरा” कहा जाता है।
‘होरा’ सिद्धांत क्या है?
‘होरा‘ का अर्थ है – एक ग्रह की विशिष्ट शक्ति से युक्त समय खंड। प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्र के अनुसार, हर दिन के 24 घंटे 7 ग्रहों में बाँटे गए हैं। हर ग्रह की होरा एक घंटे तक प्रभावी रहती है। दिन का पहला घंटा (प्रातःकाल) जो ग्रह संचालित करता है, वही उस दिन का स्वामी कहलाता है।
- रविवार = पहला घंटा सूर्य की होरा → दिन = सूर्यवार
- उसके बाद प्रत्येक घंटे में ग्रहों का पुनःक्रमशः प्रभाव चलता है: चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, और फिर पुनः सूर्य…
इस तरह 24 घंटों की गणना के बाद जब अगला दिन प्रारंभ होता है, तो 25वां घंटा चंद्र की होरा होता है। इसी कारण अगला दिन होता है – सोमवार (चंद्र का दिन)। इसके बाद मंगल की होरा शुरू होती है और दिन बनता है – मंगलवार, और यह क्रम निरंतर चलता है। यह गणना किसी ग्रह के आकार या दूरी पर नहीं, बल्कि उनके होरा प्रभाव और साप्ताहिक पुनरावृत्ति चक्र पर आधारित है।
ग्रंथों से प्रमाण
भारतीय ग्रंथों में इस सिद्धांत के कई प्रमाण मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप, एक प्रसिद्ध नवग्रह मंत्र में सभी ग्रहों का वर्णन इसी होरा क्रम से किया गया है:
“ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहु केतवः सर्वे ग्रहाः शान्तिकराः भवन्तु॥”
यह मंत्र न केवल नवग्रहों की शक्ति को स्वीकार करता है, बल्कि उनके पारस्परिक संतुलन और प्रभाव को भी दर्शाता है। यह एक हिंदू मंत्र है, जो नवग्रहों (नौ ग्रहों) की शांति के लिए पढ़ा जाता है। इसका अर्थ है, “हे ब्रह्मा, मुरारी (विष्णु), त्रिपुरांतक (शिव),,,,, आप तीनों से ही इस सृष्टि पर सब कुछ चलता है। हे तीनों लोकों के स्वामी आप भानु: (सूर्य), शशि (चंद्रमा), भूमिसुतो (मंगल), बुधश्च (बुध), गुरुश्च (गुरु), शुक्रः (शुक्र), शनिराहु केतवः (शनि, राहु और केतु) सभी ग्रहों को शांत करें।
इस प्रकार, सप्ताह के दिनों का क्रम केवल एक सांस्कृतिक परंपरा नहीं है, बल्कि गहन गणितीय और ज्योतिषीय तर्क पर आधारित एक वैज्ञानिक प्रणाली है। ‘होरा’ सिद्धांत हमें यह दर्शाता है कि प्राचीन भारतीय ज्योतिष ने समय को मापने और दिन निर्धारित करने में कैसी बौद्धिक सूक्ष्मता दिखाई थी, जिसे बाद में यूनानी और रोमन पद्धतियों ने भी अपनाया।
निष्कर्ष
हम मनुष्य हैं—और मनुष्य की सबसे विशिष्ट शक्ति है उसकी जिज्ञासा। यही जिज्ञासा हमें हमेशा किसी न किसी रहस्य के पीछे खींच लाती है। इसी भीतर की पुकार ने आपको इस लेख के अंत तक पहुँचाया है। यह वही जिज्ञासा है जिसने प्राचीन मानव को आकाश की ओर देखने, तारों और ग्रहों की गति को समझने, समय को नापने और अंततः महीनों के नामकरण तक की खोज की प्रेरणा दी।
समय के साथ-साथ यह ज्ञान केवल स्थिर नहीं रहा, बल्कि उसमें निरंतर परिष्कार होता गया। त्रुटियों को समझा गया, सटीकताओं को निखारा गया और हर पीढ़ी ने अपनी जिज्ञासा से उसमें नया आयाम जोड़ा। आज भी यही प्रक्रिया जारी है—हम खोजते रहते हैं, पूछते रहते हैं—”क्या?”, “कैसे?”, और “क्यों?”। किसी विषय पर कई मत हो सकते हैं, परन्तु वही मत समाज में स्वीकार्य होता है जो तथ्य, तर्क और अनुभव की कसौटी पर खरा उतरता है।
अब जब आप यहाँ तक आ ही चुके हैं, तो संभवतः आपको यह भी समझ आ गया होगा कि महीनों का यह सफ़र मात्र एक कैलेंडर का इतिहास नहीं, बल्कि मानव सभ्यता की खोजी चेतना की एक गहराई से बुनी हुई गाथा है—जो वैदिक नक्षत्रों से शुरू होकर आज के ग्रेगोरियन महीनों तक पहुँचती है।
अंतिम संदेश
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