नरसिंह भगवान के क्रोध से प्रत्यंगिरा माँ के उद्भव तक — एक अदृश्य दिव्य युद्ध।

Pratyangira Devi Story को समझने के लिए पहले यह जानना ज़रूरी है कि भगवान नरसिंह अवतार की कथा सिर्फ़ प्रह्लाद की रक्षा तक सीमित नहीं है। इसके पीछे एक ऐसी रहस्यमय, उग्र और ब्रह्मांड-विघटनकारी ऊर्जा की कहानी छुपी है जिसे शास्त्रों में संकेत तो मिलता है, पर विस्तार कहीं नहीं। इस लेख में हम उस दुर्लभ परंपरा की कथा को खोलेंगे जिसमें विष्णु भगवान के उग्र रूप, भगवान शिव के सर्वेश्वर रूप, गरुड़ के विलय से उत्पन्न गंडभेरुंड शक्ति और माँ पार्वती की “विपरीत प्रत्यंगिरा” जैसी ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के उद्भव का रहस्य छिपा है। यह कथा केवल शक्ति का वर्णन नहीं—बल्कि माँ की उस करुणा का साक्ष्य है जो विनाश में भी संरक्षण ही ढूँढती है।

इन्हीं प्रश्नों का उत्तर खोजने और इनके आध्यात्मिक व व्यवहारिक स्वरूप को समझने के लिए हम यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो इन्हीं सब बातों को लेकर हम आज के विषय का श्री गणेश करते हैं; नमस्ते! Anything that makes you feel connected to me — hold on to it. मैं Aviral Banshiwal, आपका दिल से स्वागत करता हूँ|🟢🙏🏻🟢

विषय सूची

पाठकों के प्रति कृतज्ञता — आपकी रुचि ही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है

सबसे पहले मैं अपने उन सभी प्रिय पाठकों का हृदय से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जो मेरी हर पंक्ति को केवल पढ़ते ही नहीं, बल्कि उसके भाव, उसके अर्थ और उसकी गहराई तक उतरकर उसे आत्मसात करते हैं। आपकी यह रुचि, आपकी यह जिज्ञासा, और यह जानने की लालसा कि “अब आगे क्या बताया जाएगा?” — यही मेरे लेखन की सबसे बड़ी प्रेरणा है। जब आप मेरे विचारों को पढ़ते हैं, समझते हैं, और अपनी चेतना में जगह देते हैं, तब मुझे यह महसूस होता है कि मेरे शब्द अकेले नहीं चल रहे — आप मेरे साथ चल रहे हैं।

आपकी यही सतत सहभागिता और दिव्य चिन्तन की यह पवित्र प्यास मुझे लगातार लिखने के लिए शक्ति देती है। सच कहूँ तो, आप सभी की यही उत्सुकता मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि है, क्योंकि इससे स्पष्ट होता है कि मेरे लेख आपके हृदय से संवाद कर रहे हैं। मैं आपके इस विश्वास और प्रेम के लिए हृदय से कृतज्ञ हूँ।

भूमिका : एक अनसुने रहस्य की दहलीज़ पर

नरसिंह अवतार की कथा हम सबने सुनी है—प्रह्लाद की रक्षा, हिरण्यकशिपु का वध, और धर्म की विजय। लेकिन इस कथा का एक और पहलू है, एक ऐसा रूप, जिसका उल्लेख मानक ग्रंथों में नहीं मिलता, लेकिन शाक्त और तांत्रिक परंपराओं में यह ज्ञान कभी-कभार गुरु से शिष्य के कानों में गुप्त रूप से उतरता है। यह कथा केवल ‘नरसिंह’ की नहीं—बल्कि उन चार महाशक्तियों के उद्भव की है जिनका स्वरूप उग्र, उनका प्रभाव ब्रह्मांडीय, और उनका अर्थ अत्यंत गूढ़ है: सर्वेश्वर शिव, गंडभेरुंड शक्ति, प्रत्यंगिरा देवी, और विपरीत प्रत्यंगिरा की अंतःशक्ति।

इस लेख का उद्देश्य किसी भावना को ठेस पहुँचाना नहीं, न ही किसी मत का प्रचार करना है। यह ज्ञान मुझे मेरे गुरुदेव से प्राप्त हुआ है—और उनके आदेश से मैं इसे पाठकों के हित एवं आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया इसे परंपरा के एक दुर्लभ आयाम के रूप में समझें।

उग्र नरसिंह अवतार — जहाँ दिव्यता और पशुबल एक साथ उतरते हैं

विष्णु भगवान सर्वशक्तिमान हैं। उनका अवतरण ‘नरसिंह’ रूप में इसलिए हुआ कि हिरण्यकशिपु का वध किसी देव, मानव, पशु या अस्त्र से संभव न था। इसलिए उन्होंने एक संकर रूप धारण किया—मानव का शरीर, सिंह का सिर… एक ऐसा मेल जिसमें विवेक और उग्रता दोनों का संगम है।

लेकिन ध्यान रहे—
सिंह प्रकृति का पशु है।
उसकी प्रवृत्ति में क्रोध प्राकृतिक है।

और जब विष्णु का दिव्य तेज सिंह के उग्र स्वभाव में समा गया, तो उसकी तीव्रता सामान्य देविक सीमाओं से बाहर निकल गई। हिरण्यकशिपु का वध तो हो गया— लेकिन प्रह्लाद की रक्षा में जो क्रोध जागा था, वह शांत न हुआ। वह बढ़ता गया… लाल-लाल नेत्र, फुंफकारती सांस, रक्त के स्वाद से तीव्र हुई दहाड़… नरसिंह अब अवतार नहीं, अस्त्र बन गए थे।;एक ऐसा अस्त्र, जो नियंत्रण से बाहर जाने लगा। देवताओं में भय फैल गया— अगर यह उग्रता बढ़ती रही तो ब्रह्मांड असंतुलित हो जाएगा।

देवताओं की पुकार और शिव का सर्वनाशक रूप ‘सर्वेश्वर’

जब विष्णु का उग्र रूप अनियंत्रित होने लगा, देवी-देवताओं ने ब्रह्मा के पास, फिर महादेव के पास जाकर विनती की— “प्रभो! ब्रह्मांड बचाइए। नरसिंह शांत नहीं हो रहे।” शिव स्वयं शांतिदाता हैं, लेकिन जब सामने एक क्रुद्ध सिंहमुख देव रूप हो—जिसमें विवेक कम और पशु-प्रवृत्ति अधिक सक्रिय हो—तो शब्दों का असर नहीं होता। जानवर ताड़ना से ही रुकता है।

यही कारण था कि शिव ने नरसिंह को समझाने की जगह ‘सर्वेश्वर’ नामक अपना अत्यंत उग्र, महाभैरव स्वरूप धारण किया। यह स्वरूप इतना हिंसक, इतना अग्निमय था कि सिर्फ़ उसकी उपस्थिति से दिशाएँ कांप उठीं। कहा जाता है—जब सर्वेश्वर भैरव सिंहासन पर बैठते हैं, वह सिंहासन किसी जानवर की खाल नहीं, बल्कि नरसिंह की उतारी गई खाल है जिसे सर्वेश्वर ने युद्ध में परास्त किया था।

नरसिंह का प्रतिरोध और गंडभेरुंड शक्ति का जन्म

सर्वेश्वर का प्रभाव बढ़ने लगा। नरसिंह को जब लगा कि वे हार सकते हैं, उन्होंने सहायता के लिए गरुड़ को बुलाया। दोनों दिव्य शक्तियाँ मिल गईं— और बन गया ब्रह्मांड का एक अनसुना रूप “गंडभेरुंड”।यह रूप पूरी तरह विनाशकारी था। दो सिर, दो पंख, दहाड़ती हुई ऊर्जा, और इतना घना प्राण-बल कि देवताओं की सभाओं में कंपन दौड़ गया। अब युद्ध दो नहीं, तीन शक्तियों के बीच था :

  • सर्वेश्वर शिव
  • गंडभेरुंड
  • और उग्रता से भरे नरसिंह

यह टकराव रोकने वाला कोई नहीं था। ऊर्जा अब संहार में बदल रही थी।

ब्रह्मांड की अंतिम आशा — माँ पार्वती का हस्तक्षेप

जब विनाश का स्तर चरम पर पहुँच गया, सारे देवी-देवता दौड़कर माता पार्वती के चरणों में गिरे — “माँ! अब ब्रह्मांड आप ही बचा सकती हैं। आपके भाई भी उग्र हैं, आपके पति भी प्रचंड रूप धारण कर चुके हैं।” माता कुछ क्षण शांत रहीं। फिर उनके भीतर से एक ऐसी शक्ति संकेंद्रित होने लगी जो ब्रह्मांड में सुरक्षा, प्रतिकार, और संरक्षण का मूल स्रोत है। एक सौम्य पार्वती का स्वरूप कुछ ही क्षणों में बदल गया और उदित हुआ एक दुर्लभ, अद्भुत, क्रूर और फिर भी करुणामय रूप— “प्रत्यंगिरा”

प्रत्यंगिरा का रूप — जहाँ माँ का प्रेम और युद्ध एक हो जाता है

प्रत्यङ्गिरा (अथवा प्रत्यंगिरा) का सही सन्धि-विच्छेद है:

👉 प्रति + अङ्गिरा = प्रत्यङ्गिरा

यहाँ दो चीज़ें होती हैं:

1. “प्रति + अङ्गिरा”

— “प्रति” उपसर्ग है
— “अङ्गिरा” मूल शब्द (ऋषि/शक्ति)

2. संधि-नियम

इकार (इ) + अकार (अ) मिलने पर
➡️ यण् सन्धि होती है
➡️ इ + अ = य
इसलिए:
प्रति + अङ्गिरा → प्रत् + य + अङ्गिरा = प्रत्यङ्गिरा

अब इसका सही अर्थ?

यहाँ दो अर्थ मिलते हैं — शाब्दिक (literal) और गूढ़ (symbolic/शास्त्रीय)

1. शाब्दिक अर्थ (Literal Meaning)

प्रति = विरुद्ध / सामने / प्रतिकूल / प्रत्युत्पन्न
अङ्गिरा = अग्नि, तेज, ऊर्जा; ऋग्वेद के प्राचीन ऋषि “अंगिरा” भी इसी मूल से

इस तरह शाब्दिक अर्थ हुआ:

→ “जो प्रतिकूल शक्तियों को अंगार/अग्नि के तेज से रोक दे”

या

→ “जो नकारात्मक ऊर्जा का सामना करती है”

2. गूढ़ शास्त्रीय अर्थ

तांत्रिक परंपरा में प्रत्यङ्गिरा देवी महा-उग्र और महा-संरक्षक शक्ति मानी जाती हैं,
विशेष रूप से:

  • शत्रु-विनाश
  • दुष्ट शक्तियों का दमन
  • सूक्ष्म/अदृश्य बाधाओं को नष्ट करना
  • भूत-प्रेत-ऊर्जाओं से रक्षा
  • अत्यंत उग्र रूप से “अहंकार और भय का हनन”

इसलिए “प्रत्यङ्गिरा” का गूढ़ अर्थ लिया जाता है:

👉 “वह देवी-शक्ति जो नकारात्मकता को जड़ से पलट देती है।”

या

👉 “अंधकार को उसके ही प्रतिकार-तेज से नष्ट करने वाली ऊर्जा।”

या (One-line meaning)

“प्रत्यङ्गिरा” = नकारात्मक शक्तियों का प्रतिकार करने वाली महाशक्ति।

प्रत्यङ्गिरा — अन्य रूप में अर्थ

“प्रति” का भाव यहाँ प्रत्येक (हर एक) के रूप में भी लिया जा सकता है,
और
“अङ्गिरा” को अंग (शरीर-मन-चेतना के सभी अवयव) के रूप में समझा जाता है।

इस दृष्टि से प्रत्यङ्गिरा वह शक्ति है—

→ जो हमारे प्रत्येक अंग, प्रत्येक कोश, प्रत्येक ऊर्जा-स्तर में निवास करती है,

और

→ जो शरीर, मन, प्राण या कर्म—किसी भी स्तर पर आने वाले घातक प्रभाव को उलट दे, प्रतिक्षेप कर दे (repulse कर दे)।

अर्थात्—

प्रत्यंगिरा = वह महाशक्ति जो हर अंग में स्थित रहकर उसकी रक्षा करती है और विपरीत शक्तियों को उसी क्षण लौटा देती है।

जैसे शरीर में antibodies होती हैं— उसी प्रकार हर जीव, हर प्राणी, हर जीवित सत्ता के भीतर प्रत्यंगिरा की सूक्ष्म शक्ति विद्यमान रहती है। जब कोई किटाणु बढ़ जाता है, शरीर बीमार होता है— तो वही प्रत्यंगिरा शक्ति सक्रिय होकर लड़ती है। पार्वती का वही सूक्ष्म रूप जब तीव्र हो जाए, संकेंद्रित हो जाए, दिव्य-आकाशीय बने— तभी जन्म लेती है महाशक्ति प्रत्यंगिरा देवी

प्रत्यंगिरा द्वारा युद्ध का स्थगन — दिव्य संतुलन की पुनर्स्थापना

प्रत्यंगिरा रूप में माता युद्धभूमि में उतरीं। एक हाथ से उन्होंने सर्वेश्वर शिव को पकड़कर निःशक्त किया। दूसरे हाथ से गंडभेरुंड के दो पंख और गला थामकर उसे स्थिर कर दिया और माता ने आदेश दिया— “इस युद्ध को यहीं समाप्त करो। अपने मूल स्वरूप में लौट आओ।” यह आदेश किसी धमकी की तरह नहीं था, बल्कि माँ के आदेश की तरह— जिसमें प्रेम भी था, नियंत्रण भी, और करुणा भी। दोनों महाशक्तियाँ शांत हो गईं। सर्वेश्वर और गंडभेरुंड— अपनी-अपनी उग्रता से वापस दिव्यता में लौट आए।

प्रत्यंगिरा और विपरीत प्रत्यंगिरा — शरीर, मन और ब्रह्मांड की संरक्षण शक्ति

अब समझिए— प्रत्यंगिरा केवल देवी नहीं, बल्कि एक Universal Biological Principle भी है। जब भी कोई परजीवी शरीर में बढ़ता है, जब भी संक्रमण होता है, जब भी हमें बुखार आता है— तो शरीर के अंदर वही विपरीत प्रत्यंगिरा शक्ति सक्रिय होती है। दवा और एंटीडोज वही प्रक्रिया तेज करते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे देवताओं ने माता से सहायता माँगी थी— और माता ने प्रत्यंगिरा रूप धारण कर परजीवी रूपी उग्र शक्तियों का विनाश कर ब्रह्मांड की रक्षा की। इसीलिए इन्हें ‘विनाशक’ कहकर डरने की जरूरत नहीं— क्योंकि उनका विनाश संरक्षण के लिए है। विनाश नहीं, तारणा उनका मूल स्वभाव है।

यह कथा क्यों महत्वपूर्ण है?

क्योंकि यह बताती है— माँ का रूप चाहे कैसा भी हो, उसका अंतिम उद्देश्य संरक्षण ही होता है। उग्रता भी माँ की है, शांति भी माँ की है, दया भी माँ की है, युद्ध भी माँ का है— और अंततः बचाना भी वही जानती है। प्रत्यंगिरा समझाती हैं कि विनाश भी कभी-कभी सृजन का मार्ग बनता है। और कभी-कभी माँ को उस उग्र रूप में उतरना पड़ता है जहाँ प्रेम का दूसरा नाम रक्षा बन जाता है।

गुरु-परंपरा का सम्मान — ज्ञान का स्रोत

प्रिय पाठकों, यह कथा किसी ग्रंथ की नकल नहीं है, न ही किसी कल्पना का परिणाम। यह ज्ञान मुझे मेरे गुरुदेव से प्राप्त हुआ है— शाक्त परंपरा के भीतर संरक्षित, सदियों से मौन रूप से आगे बढ़ता हुआ ज्ञान। मैं इसे केवल आदेशानुसार आप तक पहुँचा रहा हूँ। इस लेख का उद्देश्य न भ्रम फैलाना है, न किसी संप्रदाय को प्रभावित करना, न ही किसी प्रकार की भावना को चोट पहुँचाना। कृपया इस कथा को एक ज्ञान-वृद्धि के रूप में, एक रहस्यमय आध्यात्मिक यात्रा के रूप में, और माँ की करुणा के अद्भुत स्वरूप के रूप में स्वीकार करें।

माँ है और रक्षा भी माँ है

माँ का स्वभाव कितना अद्भुत है—ऊपर से भले वह उग्र दिखाई दे, लेकिन भीतर की ममता कभी समाप्त नहीं होती। माँ के हर रूप—सौम्य, कोमल, उग्र, प्रचंड—सबका मूल केंद्र प्रेम ही होता है। माँ चाहे प्रत्यंगिरा के रूप में युद्धभूमि में उतरे, चाहे अन्नपूर्णा बनकर भोजन दे, चाहे दुर्गा बनकर दानवों का विनाश करे या पार्वती बनकर कोमलता से बैठे—उसकी हर सांस में संरक्षण है, हर दृष्टि में करुणा है, और हर निर्णय में भरण-पोषण का भाव छिपा है।

माँ की ताड़ना भी दंड नहीं होती—वह भी एक प्रकार की रक्षा होती है। जैसे एक सामान्य माँ अपने बच्चे को गलत राह से रोकने के लिए डांटती है, उसी तरह देवी माँ की उग्रता भी किसी विनाश के लिए नहीं,
बल्कि उस विनाश को रोकने के लिए प्रकट होती है जो सृष्टि के संतुलन को तोड़ सकता है।

क्योंकि माँ का पहला धर्म है—पालन-पोषण। और पालन-पोषण केवल दाल-चावल खिलाने का नाम नहीं है, उसमें सुरक्षा भी आती है, संस्कार भी आते हैं, सीख भी आती है, और आवश्यकता पड़ने पर ताड़ना भी। यही कारण है कि ‘माँ’ और ‘ममता’ दो अलग शब्द नहीं—दो रूप हैं, पर एक ही तत्त्व। ममता के बिना माँ संभव ही नहीं, और माँ के बिना ममता पूर्ण नहीं।

प्रत्यंगिरा देवी का उग्र रूप भी इसी ममता का चरम विस्तार है—जहाँ ब्रह्मांड की रक्षा के लिए माँ अपने भीतर की हर ऊर्जा को संकेंद्रित कर लेती है। उसकी उग्रता में भी संरक्षण है, उसकी दहाड़ में भी करुणा है, और उसके विनाश में भी सृजन की तैयारी। समस्त सृष्टि में कोई शक्ति ऐसी नहीं जो ताड़ना में भी तारना खोज सके और विनाश में भी जीवन को बचा सके— यह क्षमता सिर्फ़ माँ में होती है।

माँ चाहे कैसी भी दिखे—नरसिंह की उग्रता को रोकने वाली प्रत्यंगिरा हो या संसार को संभालने वाली शांत पार्वती— उसका अंतिम उद्देश्य एक ही है: सब कुछ ठीक चले, सब सुरक्षित रहें, और कोई भी विनाश अपनी सीमा से पार न जाए। इसीलिए कहा जाता है— माँ कभी भी ‘विनाशक’ नहीं होती, वह केवल ‘संरक्षिका’ होती है। और उसी संरक्षण की शक्ति ने नरसिंह, सर्वेश्वर और गंडभेरुंड जैसे प्रचंड रूपों को भी एक क्षण में शांत कर दिया। यह है माँ का चमत्कार। यही है माँ का सत्य। और यही है इस कथा का गूढ़ सार— जहाँ उग्रता भी माँ है, और रक्षा भी माँ है।

माँ के उग्र रूप में भी छिपी करुणा का रहस्य

माँ का भयानक रूप कभी भी केवल विनाश के लिए नहीं होता—वह हमेशा अतिभारित, अनियंत्रित, निरंतर बढ़ती हुई उस ऊर्जा को रोकने के लिए प्रकट होता है जो संसार को असंतुलित कर सकती है। जैसे दृष्टा काली ने रक्तबीज का संहार किया था—रक्तबीज जो हर रक्त-बूंद के साथ हज़ारों नए रूपों में जन्म लेता था—वैसे ही माँ का उग्र रूप उन “अंतहीन इच्छाओं” को समाप्त करने के लिए था जिनका विस्तार कभी नहीं रुकता। वही प्रतीक हमने अपने “रक्तबीज और दृष्टा काली: अंतहीन इच्छाओं पर मात का आध्यात्मिक रहस्य”↗ लेख में समझाया है।

वहाँ भी यही बात थी—माँ का विनाशक रूप किसी राक्षस को मारने के लिए नहीं, बल्कि उस अनंत, अतृप्त, स्वयं को बार-बार जन्म देने वाली प्रवृत्ति को रोकने के लिए था जो हमें भीतर से खोखला करती है। नरसिंह–गंडभेरुंड–सर्वेश्वर के संघर्ष में प्रत्यंगिरा का उतरना भी उसी सिद्धांत को दोहराता है: जब सृष्टि की ऊर्जा सीमा लांघने लगे, जब उग्रता उलटी दिशा में दौड़ पड़े, जब विनाश अपनी मर्यादा तोड़कर अस्तित्व को निगलने लगे—तब माँ अपने सबसे भयंकर रूप में उतरती हैं।

लेकिन उस भयंकरता के भीतर भी ममता ही केंद्र में होती है, क्योंकि माँ का काम किसी को “नष्ट” करना नहीं, बल्कि उस विनाशकारी प्रवृत्ति को रोकना है जो स्वयं जीव का अंत कर सकती है। इसीलिए कहा जाता है—माँ चाहे काली बनें, चामुंडा बनें, प्रत्यंगिरा बनें या अंबा—उनके हर प्रहार में भी सुरक्षा ही छिपी होती है, जैसे काली ने रक्तबीज को मारकर वास्तविक जीवन-ऊर्जा को बचाया था। माँ का हर रूप—भले अग्नि जैसा क्यों न दिखे—अंत में हमेशा अमृत का ही कार्य करता है।

लेख की भाषा और आदर के संदर्भ में एक विनम्र निवेदन

इस लेख में आपने सर्वेश्वर, गरुड़, गंडभेरुंड, प्रत्यंगिरा, विपरीत प्रत्यंगिरा और नरसिंह जैसे दिव्य रूपों के आगे/पीछे हर बार “भगवान” या “देवी” जैसे संबोधन नहीं देखे होंगे। कृपया इसे किसी भी रूप में अनादर या भावहीन अभिव्यक्ति न समझें। हमारा उद्देश्य केवल लेख की तारतम्यता, प्रवाह और कथा-गति को स्वाभाविक बनाए रखना था, इसलिए कई स्थानों पर इन दिव्य स्वरूपों को उनके मूल नामों से ही संबोधित किया गया है। इससे कथा का क्रम सहज रहता है और पाठक घटनाओं की निरंतरता को आसानी से समझ पाते हैं।

Pratyangira Devi Story के इस लेख के हर शब्द में देवों और देवियों के प्रति पूर्ण श्रद्धा, सम्मान और गहरी भक्ति निहित है और मैं स्वयं शाक्त परंपरा से जुड़ा हूँ। उनका नाम सीधे लेना भी यहाँ आदरपूर्वक ही है—क्योंकि इस परंपरा में नाम स्वयं मंत्र की तरह पवित्र माना जाता है। इसलिए विनम्र निवेदन है कि इसे भाव-हीनता नहीं, बल्कि लेखन की शैली और कथा की स्पष्टता के रूप में समझें। उम्मीद है यह बात आप प्रिय पाठकों को समझ में आएगी और आप इसे उसी श्रद्धा-भाव से ग्रहण करेंगे जिस भाव से यह लिखा गया है।

अंतिम संदेश

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