सर्वप्रथम, मैं आपको और आपके परिवार को दशहरा 2026 की हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।
आशा करता हूँ कि “Dussehra 2026” सफलता पूर्वक संपन्न हो और जगतजननी माँ दुर्गा की विशेष कृपा आपके जीवन में सदैव बनी रहे। मेरी मंगलकामना है कि माँ दुर्गा आपको जीवन भर प्रफुल्लित, आनंदमय और ऊर्जावान बनाए रखें। इस पावन अवसर पर, मैं भवमोचनी से प्रार्थना करता हूँ कि मेरी और आपकी बुद्धि सुख-दुख में सदैव तटस्थ बनी रहे तथा हम सभी निरंतर सत्कर्म करते हुए जीवन का निर्वाह करें।
नमस्ते! जय भवानी!
👉 “बोलो जगदम्बिके की जय”
मैं, Aviral Banshiwal, इस लेख में आप सभी का दिल से स्वागत करता हूँ। 🟢🙏🏻🟢
दशहरा का महत्व और प्रेरणा
Dussehra 2026 – दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है, भारतीय संस्कृति के सबसे पवित्र और प्रेरणादायी त्योहारों में से एक है। यह पर्व केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। हर वर्ष आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाने वाला यह त्योहार अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। जब-जब अधर्म और अन्याय बढ़ा, तब-तब धर्म की स्थापना के लिए दिव्य शक्तियों ने अवतार लिया और सत्य को स्थापित किया। दशहरा इस शाश्वत सत्य का जीवंत उत्सव है।
इस पर्व की सबसे बड़ी प्रेरणा यह है कि चाहे अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो, अंततः प्रकाश की ही जीत होती है। भगवान राम द्वारा रावण का वध और माता दुर्गा द्वारा महिषासुर का संहार—ये दोनों ही कथाएँ दशहरे की आत्मा हैं। ये हमें यह सिखाती हैं कि जीवन में जब-जब कठिनाइयाँ और बुराइयाँ बढ़ेंगी, हमें साहस और सत्य के मार्ग को अपनाकर उनका सामना करना होगा।
आज के युग में भी दशहरा हमें यह प्रेरणा देता है कि अगर हम अपने भीतर के रावण—जैसे क्रोध, अहंकार, लालच और असत्य को परास्त कर दें, तो जीवन अधिक पवित्र, संतुलित और सफल हो सकता है। यह त्योहार केवल पौराणिक घटनाओं की स्मृति नहीं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाला मार्गदर्शक है।
दशहरा कब मनाते हैं?
दशहरा क्वार के महीने में अर्थात् आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में 10 वीं तिथि को प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। आश्विन का माह आधा सितंबर में पड़ता है तथा आधा अक्टूबर में, दशहरा से पहले नवरात्रि होती है जिसमें माँ दुर्गा की नवमी तिथि तक पूजा होती है।
दशहरा 2026 में कब है?
20 अक्टूबर, 2026 दिन मंगलवार को है।
दशहरा पूजा 2026 का शुभ मुहूर्त
विजय मुहूर्त = 01:55PM से 02:41PM तक
अपराहन काल = 01:09PM से 03:26PM तक
दशहरा शुभ मुहूर्त निकालने की विधि
दशहरा दशमी तिथि को अपराह्न काल अर्थात् दोपहर के बाद का समय (चौथा प्रहर) में संपन्न की जाती है। अपराह्न काल का समय सूर्य के उदय होने के पश्चात् 10 वें मुहूर्त से लेकर 12 वें मुहूर्त तक का होता है। अपराह्न काल से पहले 3 प्रहर आते हैं क्रमशः प्रातः, संगव और मध्याह्न। एक प्रहर में 3 मुहूर्त होते हैं।
अपराह्न काल के आधार पर मुहूर्त
- दशमी 2 दिन हो लेकिन अपराह्न काल दूसरे दिन हो तो दशहरा दूसरे दिन होगा।
- दशमी 2 दिन हो और अपराह्न काल भी दोनों दिन हो तो दशहरा पहले दिन होगा।
- दशमी 2 दिन हो लेकिन अपराह्न काल किसी दिन न हो तो भी दशहरा पहले दिन होगा।
श्रवण नक्षत्र के आधार पर मुहूर्त
मुहूर्त की गणना में श्रवण नक्षत्र आ जाए तो उपर्युक्त अपराह्न काल के तथ्यों को भुला दिया जाता है।
- दशमी 2 दिन हो चाहें अपराह्न काल हो अथवा नहीं लेकिन जिस अपराह्न काल के समय श्रवण नक्षत्र पड़ेगा दशहरा उसी दिन मनाया जाएगा।
- दशमी 2 दिन हो लेकिन अपराह्न काल केवल पहले दिन हो तो उस स्थिति में दूसरे दिन 10 वीं तिथि पहले 3 मुहूर्त तक रहेगी और श्रवण नक्षत्र दूसरे दिन के अपराह्न काल में पड़ेगा तो दशहरा का उत्सव दूसरे दिन होगा। किंतु, दूसरे दिन 10 वीं तिथि पहले 3 मुहूर्त से कम हो तो पहले दिन ही दशहरा मनाया जाएगा।
विजयादशमी पूजा विधि
- घर में पूर्व दिशा या उत्तर दिशा या इन दोनों दिशाओं के मध्य की दिशा में कोई एक स्थान पूजा करने के लिए साफ कीजिए तथा उस जगह पर आठ पंखुड़ियां वाला फूल बना लीजिए जो आप रंगों से भी बना सकते हैं जैसे हम रंगोली बनाते हैं।
- यह अष्टदल चक्र आप रंगों की बजाए रोली, कुमकुम, चंदन, हल्दी, सिंदूर से भी बना सकते हैं।
- आगे आप अपराह्न काल के विजय मुहूर्त में देवी अपराजिता का आवाह्न करके षोडशोपचार पूजा कर सकते हैं।
दशहरा का इतिहास और उत्पत्ति
दशहरा का इतिहास भारतीय धर्मग्रंथों और परंपराओं में गहराई से जुड़ा हुआ है। इसके दो प्रमुख स्रोत माने जाते हैं – रामायण और देवी महात्म्य। रामायण के अनुसार, इस दिन भगवान श्रीराम ने रावण का वध कर माता सीता को मुक्त कराया था। यह घटना केवल एक युद्ध की विजय नहीं थी, बल्कि सत्य, धर्म और न्याय की स्थापना का प्रतीक बन गई। इसी कारण इसे विजयादशमी कहा गया।
दूसरी ओर, देवी महात्म्य (मार्कंडेय पुराण) में वर्णित कथा के अनुसार, माँ दुर्गा ने नौ दिनों तक महिषासुर नामक राक्षस से युद्ध किया और दशमी के दिन उसका वध किया। यह विजय स्त्री शक्ति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति थी और इसने संसार को यह संदेश दिया कि जब-जब अधर्म और अत्याचार बढ़ेंगे, तब-तब शक्ति स्वरूपा देवी स्वयं प्रकट होकर उनका अंत करेंगी।
इतिहासकारों के अनुसार, दशहरा का उत्सव प्राचीन काल से ही विभिन्न राजाओं और राज्यों द्वारा सामूहिक रूप से मनाया जाता रहा है। कई जगहों पर इसे नए कार्यों की शुरुआत के लिए शुभ तिथि माना जाता है। दक्षिण भारत में चोल, पल्लव और विजयनगर साम्राज्य के शासक विजयादशमी को युद्ध की शुरुआत और शस्त्र पूजन के लिए विशेष दिन मानते थे। इस प्रकार, दशहरा का इतिहास केवल धार्मिक दृष्टि तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन का भी अभिन्न हिस्सा रहा है।
महिषासुर मर्दिनी रूप में माता दुर्गा की विजय।
ऋषि कश्यप जोकि एक ब्रह्म-ऋषि थे। ऋषि कश्यप की तीसरी पत्नी का नाम दनु था। ऋषि कश्यप की देवी दनु से दस संतान उत्पन्न हुई थी जिनमें सबसे बड़ी रंभ थी। महिषासुर रंभ का पुत्र और ऋषि कश्यप का पोता था। महिषासुर धोखेबाजी में प्रवीण था तथा रूप बदलकर गलत कार्य किया करता था, इसलिए इसको देव न कहकर दानव की उपाधि मिली क्योंकि इसके कार्य दानवों जैसे ही थे।
महिषासुर से परेशान होकर देवी पार्वती ने इसका वध कर दिया जिसकी वज़ह से देवी पार्वती को महिषासुरमर्दिनी से संबोधित किया गया था। नवरात्रि का उत्सव देवी दुर्गा और महिषासुर के वध को दर्शाता है। नौ दिनों तक देवी दुर्गा और महिषासुर के मध्य युद्ध चला था। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक तथा दशमी को देवी दुर्गा को महिषासुर पर विजय प्राप्त हुई इसलिए दशमी तिथि को विजयादशमी का उत्सव मनाया जाता है।
यह कहानी हिन्दू धर्म तथा विशेष रूप से शाक्त परंपरा से जुड़े हुए लोगों में विशेष प्रभाव डालती है। महिषासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या की थी जिसके फलस्वरुप ब्रह्मा जी ने वरदान दिया कि महिषासुर पर देव व दानव कोई भी विजय प्राप्त नहीं कर पाएगा। महिषासुर यह वरदान पाकर अतातायी हो गया।
उसने स्वर्ग लोक (अच्छे कर्म करने वाले लोगों के रहने का स्थान) में जाकर आक्रमण कर दिया और सभी देवताओं (अच्छे कर्म करने वाले व्यक्ति) को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। महिषासुर के इस कृत्य से परेशान होकर सभी देवता अपनी सहायता के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश के पास गए और अपने उपर हुए अत्याचार का वर्णन किया।
देवताओं ने एक बार फिर से महिषासुर से युद्ध किया किन्तु पुनः असफलता हाथ लगी तत्पश्चात महिषासुर के वध के लिए देवी दुर्गा का सृजन हुआ। या फिर सौम्य रूप देवी पार्वती से उग्र रूप देवी दुर्गा का आवाह्न किया। देवी दुर्गा ने नौ दिनों तक महिषासुर से युद्ध किया और दसवें दिन वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिन्दू धर्म के लोग नवरात्रि में नौ दिनों तक देवी दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा करते हैं तथा दशमी को विजयादशमी का त्योहार बड़े ही धूमधाम से आयोजित करते हैं।
भगवान राम और रावण का युद्ध।
रावण रामायण का एक प्रमुख पात्र है। रावण लंका का राजा था। आदिवासी सभ्यता के अनुसार रावण किसी व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि प्रशासन करने वाले मुखिया की उपाधि है, रावण अर्थात् राजा। रावण पुलस्त्य ऋषि का पोता था। पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्रवा थे और रावण विश्रवा ऋषि का पुत्र था। रावण का विवाह मंदोदरी से हुआ था। मान्यताओं के अनुसार मंदोदरी का जन्म राजस्थान के जोधपुर जिले में हुआ था। जोधपुर में आज भी रावण की चावरी है जिस जगह पर रावण का विवाह हुआ था। जोधपुर में आज भी रावण की पूजा की जाती है।
रावण के जन्म का वर्णन अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग हुआ है। जैसे पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार रावण और कुंभकर्ण, जय-विजय थे जो भगवान विष्णु के द्वारपाल थे जिनको सप्त ऋषियों के द्वारा श्राप मिलने के कारण जन्म लेना पड़ा था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण ऋषि पुलस्त्य का वंशज है। ऋषि विश्रवा की तीन पत्नियां थीं जिनके नाम क्रमशः वरवरर्णिनी, राका और कैकसी हैं। वरवरर्णिनी से कुबेर ने जन्म लिया; कैकसी से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण तथा शूर्पणखा हुए और राका से दो जुड़वां पुत्र हुए जिनके नाम अहिरावण-महिरावण थे।
ऐसा भी माना जाता है कि रावण का जन्म नेपाल के म्याग्दी जिले में हुआ था और विवाह मंदोदरी से हुआ जोकि एक थकाली समुदाय की बेटी थीं। रावण ने जब अपने पराक्रम से स्वर्ग पर विजय पायी तो मय दानव ने अपनी पुत्रियाँ मंदोदरी और दम्यमालिनी का विवाह रावण से कर दिया। मंदोदरी पतिव्रता का पालन करने में देवी अहिल्या के समान थी। मेघनाद और अक्षयकुमार की माता मंदोदरी है तथा दम्यमालिनी से अतिकाय, त्रिशरा, नरान्तक और देवान्तक हुए। अक्षयकुमार, त्रिशरा और नरान्तक का वध हनुमान जी ने किया; मेघनाद और अतिकाय का वध श्री राम के अनुज लक्ष्मण जी ने किया तथा देवान्तक का वध बाली पुत्र अंगद ने किया था।
रावण कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्घ के लिए चला था और श्री राम से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से युद्ध आरम्भ हुआ था। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक रावण ने श्री राम से युद्ध के दौरान अपने नौ सर कटाए और अंत में शुक्ल पक्ष की दशमी को श्री राम ने रावण का वध कर दिया। इसी कारण विजयादशमी को रावण-कुंभकर्ण-मेघनाद का पुतला बनाकर जलाया जाता है; इसी महोत्सव को हम दशहरा के नाम से भी पुकारते हैं।
राजा अनरण्य का श्राप
एक समय रावण अपने मद में चूर शक्ति को अर्जित करते हुए सभी से अटक लडाई लेते हुए द्वन्द का आवाह्न देता था फिर उनको हराकर मृत्यु की गोद में सुला देता था। उसका यही घमंड अयोध्या नगरी इक्ष्वाकु वंशज राजा अनरण्य के यहां ले पहुंचा, राजा अनरण्य बड़े ही प्रतापी और धर्मार्थ व्यक्ति थे। राजा अनरण्य को रावण ने द्वंद का आवाह्न दिया।
राजा अनरण्य और रावण के मध्य भीषण युद्ध हुआ लेकिन ब्रह्मा जी के वरदान के कारण राजा अनरण्य रावण को परास्त नहीं कर सके तत्पश्चात राजा अनरण्य ने अपनी देह त्यागते हुए रावण को श्राप दिया कि रावण तेरा यही अधर्म युक्त कर्म तुझे ले डूबेगा और मेरा वंशज दशरथ के पुत्र श्री राम के द्वारा तू मृत्यु को प्राप्त होगा। रावण युद्ध के दौरान अपनी शक्ति के कारण द्वंदी से व्यंग कसा करता था और राजा अनरण्य से भी उसने व्यंग कसा और उनके कुल का अपमान किया इसी कारण राजा अनरण्य ने रावण को श्राप दिया।
दशहरा मनाने के प्रमुख कारण
दशहरा केवल एक धार्मिक त्योहार नहीं है, बल्कि इसके पीछे गहरे सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण जुड़े हुए हैं। यह त्योहार हर इंसान को अच्छाई की राह पर चलने और जीवन में नई शुरुआत करने का अवसर प्रदान करता है। आइए इसके प्रमुख कारणों को विस्तार से समझते हैं:
धार्मिक दृष्टिकोण
धार्मिक रूप से दशहरा का सबसे बड़ा कारण है सत्य की असत्य पर विजय। भगवान राम द्वारा रावण का वध और माता दुर्गा द्वारा महिषासुर का संहार इस पर्व के धार्मिक महत्व को स्थापित करता है। यह दिन भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि धर्म और न्याय की रक्षा करने वाली शक्ति सदैव विजयी होती है।
सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण
दशहरा समाज को एकजुट करने का पर्व है। इस दिन जगह-जगह रामलीला का आयोजन होता है, जिसमें लोग एक साथ इकट्ठा होकर रामायण की कथा देखते हैं। रावण दहन के माध्यम से समाज को यह संदेश मिलता है कि चाहे बुराई कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है। यह उत्सव सामूहिक मेल-जोल, भाईचारा और सांस्कृतिक एकता को मजबूत करता है।
आध्यात्मिक संदेश
आध्यात्मिक रूप से दशहरा हमें अपने भीतर झाँकने का अवसर देता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि असली विजय बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक शत्रुओं पर होती है। क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मोह और अहंकार जैसे नकारात्मक गुण ही असली रावण हैं, जिन्हें हर व्यक्ति को अपने भीतर परास्त करना चाहिए। विजयादशमी का दिन इन बुराइयों को त्यागकर आत्मबल, शांति और धर्म की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
भारत में दशहरा के क्षेत्रीय रूप
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में दशहरा अलग-अलग रूपों और परंपराओं में मनाया जाता है। हर क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस पर्व को अलग ढंग से मनाता है, लेकिन संदेश हर जगह एक ही है — सत्य की विजय और बुराई का अंत।
उत्तर भारत – रामलीला और रावण दहन
उत्तर भारत में दशहरे का प्रमुख आकर्षण है रामलीला और रावण दहन। पूरे नौ दिनों तक जगह-जगह रामायण का मंचन किया जाता है। दशमी के दिन रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन होता है। इसे देखने के लिए हजारों लोग एकत्रित होते हैं। यह परंपरा न केवल मनोरंजन है बल्कि समाज को यह सिखाती है कि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है।
पश्चिम बंगाल और पूर्वी भारत – दुर्गा पूजा का समापन
पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम में दशहरा दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ दिनों तक माँ दुर्गा की भव्य पूजा-अर्चना की जाती है। दशमी के दिन विजयादशमी के रूप में माँ दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। इसे विदाई का पर्व माना जाता है, जहाँ देवी को आँसुओं के साथ विदा कर अगले वर्ष पुनः आने का निमंत्रण दिया जाता है।
दक्षिण भारत – नवरात्रि और विजयादशमी
दक्षिण भारत में दशहरा विशेष रूप से शक्ति आराधना और विद्या आरंभ का पर्व माना जाता है। यहाँ विजयादशमी के दिन बच्चे शिक्षा की शुरुआत करते हैं, जिसे अत्यंत शुभ माना जाता है। इसके अलावा गोलू (गुड़ियों की सजावट) की परंपरा भी प्रसिद्ध है। तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में दशहरा को नवरात्रि उत्सव का समापन मानकर बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
महाराष्ट्र और पश्चिमी भारत – शमी वृक्ष पूजा
महाराष्ट्र में दशहरे पर शमी वृक्ष की पूजा की जाती है। इसे सोना (स्वर्ण) का प्रतीक माना जाता है और लोग एक-दूसरे को शमी पत्र देकर “सोना” भेंट करते हैं। यह परंपरा मित्रता, समृद्धि और भाईचारे को बढ़ाने का संदेश देती है।
दशहरा का आध्यात्मिक और दार्शनिक संदेश
दशहरा केवल एक उत्सव नहीं है, बल्कि जीवन का गहरा दर्शन और आत्मा की उन्नति का मार्गदर्शन भी है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि असली युद्ध बाहर के रावण या महिषासुर से नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपी बुराइयों से है। जब हम अपने क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या और मोह को जीत लेते हैं, तभी असली विजय मिलती है।
बुराई पर अच्छाई की विजय
रामायण और दुर्गा महात्म्य दोनों ही यह बताते हैं कि चाहे बुराई कितनी ही प्रबल क्यों न हो, सत्य और धर्म की जीत निश्चित है। यही संदेश हमें अपने व्यक्तिगत जीवन में भी लागू करना चाहिए। जब हम कठिन परिस्थितियों में भी सत्य का मार्ग नहीं छोड़ते, तब अंततः सफलता हमारी होती है।
आत्मा की शुद्धि और अंतःशक्ति का जागरण
दशहरा हमें याद दिलाता है कि आत्मबल सबसे बड़ी शक्ति है। बाहरी संघर्ष तभी जीते जा सकते हैं जब भीतर की शक्ति प्रज्वलित हो। आत्मा की शुद्धि, सत्कर्म और साधना से हम भीतर के अंधकार को समाप्त कर सकते हैं। इस दिन को आत्मावलोकन और आंतरिक शक्ति को जगाने का अवसर माना जाता है।
जीवन का दार्शनिक दृष्टिकोण
दार्शनिक रूप से देखा जाए तो दशहरा हमें यह भी सिखाता है कि जीवन अस्थायी है और बुराई का साम्राज्य कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है। यह पर्व हमें विनम्रता, संयम और सद्गुणों के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
दशहरा और समाज
दशहरा केवल धार्मिक या आध्यात्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह समाज में सामूहिकता और एकता का भी प्रतीक है। यह त्योहार लोगों को एक साथ जोड़ता है और सामाजिक जीवन को और भी सशक्त बनाता है।
सामूहिक उत्सव और मेलों का महत्व
दशहरे के अवसर पर जगह-जगह रामलीला, रावण दहन और भव्य मेले आयोजित किए जाते हैं। इन आयोजनों में हजारों लोग एक साथ भाग लेते हैं। यह सामूहिकता समाज में भाईचारे, एकता और सहयोग की भावना को मजबूत करती है। बच्चे, युवा और बुजुर्ग—सभी एक ही मंच पर आकर आनंद लेते हैं।
सांस्कृतिक एकता का प्रतीक
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में दशहरा सांस्कृतिक एकता का मजबूत संदेश देता है। चाहे उत्तर भारत में रावण दहन हो, बंगाल में दुर्गा विसर्जन या दक्षिण भारत में विद्या आरंभ की परंपरा—हर जगह इसका उद्देश्य एक ही है: अच्छाई की जीत और बुराई का अंत। इस प्रकार, यह त्योहार विभिन्न क्षेत्रों और परंपराओं को जोड़ने वाला सेतु है।
सामाजिक मूल्यों का संवाहक
दशहरा हमें यह भी सिखाता है कि समाज तभी प्रगति कर सकता है जब उसमें असत्य, अन्याय और अत्याचार का नाश हो। यह पर्व लोगों को सत्य, धर्म और नैतिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही, इसमें सामूहिक आनंद और सहयोग की भावना समाज को अधिक सशक्त और संगठित बनाती है।
दशहरा और विज्ञान/ऊर्जा दृष्टिकोण
दशहरा केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व वाला पर्व नहीं है, बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक और ऊर्जा संबंधी पहलू भी जुड़े हुए हैं। यह त्योहार ऋतु परिवर्तन, मानसिक ऊर्जा और सामाजिक संतुलन को मजबूत करने का अवसर प्रदान करता है।
ऋतु परिवर्तन और नए कार्यों की शुरुआत
दशहरा उस समय आता है जब वर्षा ऋतु समाप्त होकर शरद ऋतु का आरंभ होता है। यह काल नए कार्यों की शुरुआत के लिए उपयुक्त माना जाता है। वातावरण शुद्ध हो जाता है और प्राकृतिक ऊर्जा नई दिशा प्रदान करती है। इसी कारण प्राचीन काल से इस दिन को आयुध पूजन और शस्त्र पूजन के लिए शुभ माना गया है।
सकारात्मक ऊर्जा का संचार
त्योहार मनाने से मनुष्य के भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। रावण दहन और दुर्गा विसर्जन जैसे अनुष्ठान प्रतीकात्मक रूप से यह संदेश देते हैं कि जब हम नकारात्मकता को त्यागते हैं तो भीतर से हल्कापन और सकारात्मकता का अनुभव होता है। यह ऊर्जा समाज में उत्साह और नई ऊर्जा का वातावरण बनाती है।
मानसिक और शारीरिक संतुलन
दशहरा का पर्व व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक संतुलन की ओर प्रेरित करता है। मेलों, उत्सवों और सामूहिक आयोजनों से सामाजिक मेल-जोल बढ़ता है, जिससे मानसिक तनाव कम होता है। साथ ही, अनुष्ठानों और पूजा-पाठ से आत्मबल और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। यह वैज्ञानिक दृष्टि से स्वास्थ्य और मानसिक शांति के लिए लाभकारी है।
आज के समय में दशहरा का महत्व
दशहरा केवल पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि आज के आधुनिक जीवन में भी इसका गहरा महत्व है। यह त्योहार हमें बदलते युग की चुनौतियों के बीच सत्य, नैतिकता और सकारात्मक सोच को बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
आधुनिक जीवन में संदेश
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जब लोग तनाव, प्रतिस्पर्धा और नकारात्मकता से घिर जाते हैं, तब दशहरा हमें याद दिलाता है कि हर कठिनाई पर विजय संभव है। यह पर्व सिखाता है कि आत्मविश्वास और सत्य के मार्ग पर चलकर व्यक्ति अपने जीवन की सभी समस्याओं को पार कर सकता है।
व्यक्तिगत जीवन में योगदान
व्यक्तिगत स्तर पर दशहरा हमें आत्मचिंतन का अवसर देता है। यह दिन हमें अपने भीतर झाँककर यह सोचने की प्रेरणा देता है कि हम अपने जीवन से कौन-सी बुराइयाँ निकाल सकते हैं। जैसे—क्रोध, ईर्ष्या, लालच और आलस्य। इस प्रकार यह त्योहार व्यक्ति को आत्मशुद्धि और नई शुरुआत का अवसर प्रदान करता है।
सामाजिक जीवन में महत्व
आज भी दशहरा सामाजिक एकता का मजबूत आधार है। सामूहिक रामलीला, मेले और रावण दहन जैसे आयोजन समाज में भाईचारे और सहयोग की भावना को जीवित रखते हैं। यह त्योहार लोगों को एक साथ जोड़कर सांस्कृतिक पहचान और साझा मूल्यों को मजबूत करता है।
निष्कर्ष: दशहरा से मिलने वाली सीख
दशहरा केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शक है। यह हमें सिखाता है कि चाहे अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो, अंततः प्रकाश की ही विजय होती है। भगवान राम की रावण पर जीत और माँ दुर्गा की महिषासुर पर विजय हमें यह विश्वास दिलाती है कि अधर्म और अन्याय कभी स्थायी नहीं हो सकते।
यह पर्व हर व्यक्ति को अपने भीतर के रावण—अहंकार, क्रोध, लोभ और ईर्ष्या—का दहन करने की प्रेरणा देता है। जब हम इन बुराइयों को त्यागते हैं, तभी जीवन में सच्ची सफलता, शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। दशहरा हमें याद दिलाता है कि अच्छाई, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाला कभी हारता नहीं।
आज के युग में भी दशहरा उतना ही प्रासंगिक है जितना हजारों वर्ष पहले था। यह त्योहार हमें आत्मबल, सामाजिक एकता और नई शुरुआत का संदेश देता है। हर वर्ष विजयादशमी हमें यह अवसर देती है कि हम अपने जीवन में सकारात्मक ऊर्जा भरें और समाज में भाईचारे का वातावरण बनाएं।
दशहरा: सत्य की असत्य पर विजय का पर्व
वास्तव में दशहरा मनाने का सार यही है कि सत्य की असत्य पर विजय हो, धर्म का अधर्म पर राज स्थापित हो, और बुराई पर अच्छाई का जयघोष हो। यह त्योहार नकारात्मकता के अंत और सकारात्मक ऊर्जा की जीत का प्रतीक है।
जीवन का सिद्धांत भी यही है कि अति हर चीज़ की नुकसानदेह होती है। व्यक्ति लगातार सो नहीं सकता, न ही लगातार जाग सकता है। हर चीज़ एक निश्चित व्यवस्था के दायरे में होती है, और जब कोई कार्य उसी दायरे में चलता है तो सबकुछ संतुलित रहता है। परंतु जब यह संतुलन टूटता है, तो परिणामस्वरूप उसका विनाश या तहस-नहस होना निश्चित है।
रावण: विद्या और शक्ति का धनी, परंतु अधर्म का शिकार
रावण प्रकांड विद्वान था, महाप्रतापी था, ओजस्वी था और सर्वगुण सम्पन्न था। वह चाहता तो देवताओं में भी स्थान पा सकता था। वाल्मीकि जी ने अपनी रामायण में रावण के गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकारा है। उन्होंने बताया है कि रावण चारों वेदों का ज्ञाता था और महान विद्वान था।
वाल्मीकि जी रामायण में हनुमान जी का रावण के दरबार में प्रवेश वर्णित करते हुए रावण के गुणों की सराहना करते हैं:
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।।
आगे चलकर स्वयं श्रीराम भी रावण को देखकर मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि यदि इसमें अधर्म प्रबल न होता तो यह स्वयं देवलोक का स्वामी बन सकता था।
सही और गलत का चुनाव
जीवन में कई बार हम ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिनके लिए अंतरात्मा हमें तुरंत चेतावनी देती है कि – “यह कार्य गलत है, ऐसा नहीं करना चाहिए था।” ऐसे समय पर व्यक्ति को तुरंत अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए और भविष्य में उसका पुनरावृत्ति न करने का संकल्प लेना चाहिए।
यदि कार्य करते समय मन कहे कि यह अनुचित है, तो उसे तुरंत त्याग देना चाहिए। लेकिन यदि हम निरंतर गलत कार्य करते रहते हैं और गलत संगति में डूबे रहते हैं, तो धीरे-धीरे हमारी विवेक-बुद्धि कुंठित हो जाती है और हमें सही और गलत का अंतर ही समझ में नहीं आता।
दरअसल, सही और गलत का निर्धारण हमेशा परिस्थितियों के अनुसार होता है। एक परिस्थिति में जो सही है, दूसरी परिस्थिति में वही गलत हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कहा जाए कि “झूठ बोलना पाप है” तो संभव है कि हर परिस्थिति में यह नियम निभाना किसी के लिए संभव न हो। जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब सत्य को छुपाना ही धर्म की रक्षा का मार्ग बन जाता है।
परिणाम हमेशा धर्मयुक्त होना चाहिए
मुख्य बात यह है कि चाहे बीच की राह कैसी भी हो, लेकिन अंततः परिणाम धर्मयुक्त और सकारात्मक होना चाहिए। श्रीकृष्ण का जीवन भी यही शिक्षा देता है कि कर्म करते रहो, लेकिन अंतिम परिणाम धर्म की स्थापना होना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार जीव हत्या पाप है, लेकिन महाभारत में श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में पांडवों ने अपने ही बंधु-बांधवों का रक्तपात किया। फिर भी यह युद्ध धर्मस्थापना और अधर्म के अंत का प्रतीक बना।
विजयादशमी की प्रेरणा
दशहरा हमें यही संदेश देता है कि हर व्यक्ति को अपने भीतर के रावण—काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य (ईर्ष्या), अहंकार, भय, निष्ठुरता (दया की कमी) और भ्रष्टाचार/धोखा —का दहन करना चाहिए। जब हम इन आंतरिक बुराइयों पर विजय पा लेते हैं, तभी असली विजयादशमी मनाई जाती है।
आशा है इस विजयादशमी पर आप भी अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों का अंत करेंगे और धर्म तथा सकारात्मकता के मार्ग पर चलकर जीवन को अधिक श्रेष्ठ बनाएंगे। यही दशहरा का वास्तविक उत्सव है।
अंतिम संदेश
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