Karwa Chauth 2026 हिंदू विवाहित स्त्रियों के लिए प्रेम, त्याग और आस्था का सबसे बड़ा पर्व है। इस दिन पत्नियाँ सूर्योदय से लेकर चंद्रोदय तक निर्जला व्रत रखती हैं और अपने पति की लंबी उम्र तथा सुखमय दांपत्य जीवन की कामना करती हैं। करवा चौथ का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी बेहद खास है। Karwa Chauth 2026 का इतिहास, कथा, पूजा विधि और महत्व हमें यह सिखाता है कि आस्था और विश्वास किस तरह रिश्तों को और गहरा बनाते हैं। यही कारण है कि बदलते समय में भी करवा चौथ का आकर्षण पहले की तरह कायम है।
सर्वप्रथम, मैं आप दोनों (पति-पत्नी) को करवा चौथ 2026 की हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। 🌙💑
आशा करता हूँ कि यह पावन करवा चौथ पूजा विधि सफलता पूर्वक संपन्न हो और जगतजननी माँ पार्वती की विशेष कृपा से आपका दांपत्य जीवन सदैव सुखमय और मंगलमय बना रहे। मेरी मंगलकामना है कि माँ पार्वती आप दोनों के रिश्ते में प्रेम, विश्वास और उत्साह की ज्योति निरंतर प्रज्वलित रखें।
इस पावन अवसर पर, मैं भवमोचनी से प्रार्थना करता हूँ कि आपका रिश्ता हर परिस्थिति में और मजबूत हो, सुख-दुख में आप दोनों का धैर्य और समझ कायम रहे तथा आप हमेशा एक-दूसरे के साथ सत्कर्मों के मार्ग पर अग्रसर रहें।
🙏 नमस्ते! जय भवानी!
👉 “बोलो गौरी शंकर की जय”
मैं, Aviral Banshiwal, इस लेख में आप सभी दंपतियों का हृदय से स्वागत करता हूँ। 🟢💞🟢
करवा चौथ का महत्व
करवा चौथ हिंदू धर्म का एक अत्यंत लोकप्रिय और पवित्र व्रत है, जिसे विशेषकर विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी उम्र, उत्तम स्वास्थ्य और सुखमय दांपत्य जीवन के लिए करती हैं। यह व्रत न केवल एक धार्मिक परंपरा है, बल्कि पति-पत्नी के बीच अटूट विश्वास और प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है। इस दिन स्त्रियाँ सूर्योदय से पहले उठकर दिनभर निराहार और निर्जल व्रत रखती हैं और रात में चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही जल ग्रहण करती हैं।
करवा चौथ की विशेषता यह है कि यह व्रत केवल व्यक्तिगत आस्था तक सीमित नहीं रहता, बल्कि सामूहिक रूप से भी मनाया जाता है। गाँवों और शहरों में महिलाएँ मिलकर इस व्रत का पूजन करती हैं और गीत-भजन के माध्यम से उत्सव का माहौल बना देती हैं। इससे सामाजिक एकता और आपसी भाईचारे की भावना प्रबल होती है।
आज के आधुनिक समय में भी करवा चौथ का महत्व कम नहीं हुआ है। बल्कि, यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को और भी मजबूत करने वाला अवसर बन गया है। यह केवल धार्मिक या परंपरागत अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवनसाथी के लिए समर्पण, प्रेम और त्याग का जीवंत उदाहरण है।
करवा चौथ का इतिहास और उत्पत्ति
करवा चौथ का इतिहास बेहद रोचक और प्राचीन है। यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर भारत के राज्यों—उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश में अधिक प्रचलित रहा है। माना जाता है कि यह परंपरा हजारों साल पुरानी है, जब समाज कृषि और युद्ध प्रधान था। उस समय पति प्रायः युद्धों या लम्बी यात्राओं पर जाते थे, तब स्त्रियाँ उनके कुशल-क्षेम के लिए व्रत करती थीं। धीरे-धीरे यह परंपरा धार्मिक रूप लेकर परिवार की समृद्धि और पति की लंबी आयु की प्रार्थना से जुड़ गई।
इतिहासकार मानते हैं कि “करवा चौथ” नाम दो शब्दों से बना है—“करवा” (मिट्टी का बर्तन, जिसमें जल भरा जाता है) और “चौथ” (चंद्र मास की चौथी तिथि)। इस दिन महिलाएँ जल से भरे करवे का उपयोग पूजा में करती हैं और चंद्रमा को अर्घ्य अर्पित करती हैं। यही कारण है कि इसे “करवा चौथ” कहा गया। इस दिन का संबंध विशेष रूप से चंद्रमा से है क्योंकि चंद्रमा को आयु और शीतलता का दाता माना गया है।
लोककथाओं के अनुसार करवा चौथ की उत्पत्ति उस समय से जुड़ी है जब स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हेतु न केवल व्रत करती थीं, बल्कि सामूहिक प्रार्थना भी करती थीं। इससे उन्हें मानसिक शक्ति मिलती और परिवार में एकता का भाव पनपता। यही कारण है कि करवा चौथ आज भी केवल धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जीवित है।
करवा चौथ का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
Karwa Chauth 2026 केवल एक व्रत भर नहीं है, बल्कि यह हिंदू धर्म की आस्था और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। धार्मिक दृष्टि से यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को पवित्र और मजबूत करने वाला माना जाता है। शास्त्रों में चंद्रमा को “जीवन का रक्षक” और “शीतलता का दाता” कहा गया है, इसलिए इस व्रत में चंद्रमा को विशेष रूप से पूजनीय माना गया है। महिलाएँ दिनभर उपवास रखकर रात को चंद्रमा को अर्घ्य देती हैं और फिर पति के हाथ से जल ग्रहण करके व्रत खोलती हैं। इस प्रक्रिया को पति-पत्नी के बीच गहरी निष्ठा और विश्वास का प्रतीक माना जाता है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से करवा चौथ परिवार और समाज को जोड़ने का अवसर है। इस दिन महिलाएँ सोलह श्रृंगार करती हैं, सुंदर वस्त्र और आभूषण धारण करती हैं और एकत्रित होकर करवा चौथ की कथा सुनती हैं। इस सामूहिक पूजन से न केवल धार्मिक वातावरण बनता है, बल्कि स्त्रियों में परस्पर सहयोग और आपसी मेल-जोल भी गहरा होता है। यह परंपरा महिलाओं को एकजुट करती है और सामूहिक शक्ति का अनुभव कराती है।
आज के समय में भी करवा चौथ का सांस्कृतिक महत्व कम नहीं हुआ है। आधुनिक समाज में यह पर्व पति-पत्नी दोनों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण बन गया है। अब कई स्थानों पर पुरुष भी अपनी पत्नियों के साथ यह व्रत रखने लगे हैं, जिससे रिश्ते में समानता और प्रेम का संदेश जाता है। यह दर्शाता है कि परंपराएँ समय के साथ बदलते हुए भी अपनी मूल आत्मा को बनाए रखती हैं।
करवा चौथ व्रत की कथा (करवा चौथ की कहानी)
करवा चौथ का वास्तविक आकर्षण इसकी पौराणिक और लोककथाओं से जुड़ी कहानियों में छिपा हुआ है। ये कथाएँ न केवल धार्मिक विश्वास को मजबूत करती हैं, बल्कि इस व्रत के महत्व को भी स्पष्ट करती हैं। आइए करवा चौथ की प्रमुख कथाएँ समझते हैं:
(क) वीरवती की कथा
एक समय की बात है, एक राजा की सात पुत्रियाँ और एक पुत्र था। सबसे छोटी बेटी वीरवती अपने भाई-बहनों की लाडली थी। विवाह के बाद जब उसने पहला करवा चौथ व्रत रखा, तो दिनभर भूखी-प्यासी होने के कारण शाम तक बेहोश हो गई। यह देखकर उसके भाइयों को दया आई और उन्होंने छल से एक दीपक को पेड़ पर रख दिया ताकि वीरवती को लगे कि चंद्रमा निकल आया है।
वीरवती ने व्रत खोल दिया, परंतु तुरंत ही उसके पति की मृत्यु हो गई। दुःखी होकर वह विलाप करने लगी। तभी माँ पार्वती प्रकट हुईं और उसे सच्चाई बताकर एक साल तक करवा चौथ का नियमपूर्वक व्रत करने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद उसका पति पुनः जीवित हो गया। तभी से यह व्रत पति की दीर्घायु के लिए अनिवार्य माना जाता है।
(ख) करवा और मगरमच्छ की कथा
प्राचीन समय में एक करवा नाम की स्त्री थी जो अपने पति से अत्यधिक प्रेम करती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान कर रहा था तभी एक मगरमच्छ ने उसके पैर पकड़ लिए। करवा ने अपने पतिव्रत की शक्ति से मगरमच्छ को पकड़ लिया और यमराज के पास ले गई। उसने यमराज से प्रार्थना की कि मगरमच्छ को दंड दिया जाए। यमराज ने उसके पतिव्रत की शक्ति को देखकर मगरमच्छ को मृत्यु दंड दिया और उसके पति की आयु लंबी कर दी। तभी से करवा चौथ व्रत को स्त्रियों के अटूट विश्वास और पति की सुरक्षा से जोड़ा जाता है।
(ग) करवा की एक और अन्य कथा
एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी जिसका नाम करवा था। करवा का विवाह हो गया था इसलिए करवा प्रत्येक चौथ अर्थात् चतुर्थी को गणेश भगवान का व्रत रहा करती थी और चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही व्रत खोला करती थी। चौथ का व्रत करवा अपने परिवार की सुख-समृद्धि व पति की लंबी आयु के लिए रहा करती थी। एक बार करवा अपने मायके गयी हुई थी तो मायके में ही चतुर्थी का दिन आ गया इसलिए करवा ने चौथ का व्रत अपने मायके में ही रहने के बारे में सोचा।
भोर होते ही करवा ने गणेश जी को समर्पित चतुर्थी का व्रत विधि पूर्वक प्रारम्भ कर दिया। शाम तक सबकुछ सही चल रहा था लेकिन शाम होते ही करवा के माता-पिता, सात भाई और उनकी पत्नियां भोजन के लिए इकट्ठे हुए तो भाइयों ने अपनी बहन करवा से भोजन करने को कहा किन्तु करवा ने ये कह कर मना कर दिया कि मैं चंद्रमा को अर्घ्य देने के पश्चात् ही भोजन करुँगी और अभी चंद्रमा निकला नहीं है इसलिए मैं अभी भोजन नहीं करूंगी।
करवा को भूख से तड़पता भाइयों से देखा नहीं गया और एक भाई दूर कहीं पेड़ पर दीपक जला कर रख दिया और भाइयों ने करवा से कहा—बहिन देखो चंद्र निकल आया है चलो अर्घ्य दे दो और भोजन कर लो। बहिन से भाइयों की चतुराई समझी ना गई और उसने दीपक को चंद्रमा समझकर अर्घ्य दे दिया तथा भाइयों के साथ भोजन करने को चली।
करवा ने पहला निवाला तोड़ा तो उसमें बाल निकल आया फिर उसने दूसरा निवाला तोड़ा तो करवा को छींक आ गई और वो निवाला करवा के हाथ से गिर गया फिर करवा ने तीसरा निवाला तोड़ा और मुहँ में रखा ही था कि उसके ससुराल से पति के स्वर्गवास सिधारने की खबर आ गई। करवा ने अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं करने दिया और करवा ने अब पूर्ण निष्ठा से अपने ससुराल में प्रत्येक चौथ को व्रत सम्पन्न किया तथा कुछ समय पश्चात् यमराज ने करवा के पति के प्राण लौटा दिए।
करवा के नाम पर ही कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत स्त्रियों ने प्रारम्भ किया तथा तब से अभी तक यह रिवाज बरकरार है। चौथ को करवा को अशुभ संदेश मिला था इसलिए अधिकतर देहात व कस्बा में बुजुर्ग चौथ को अपने घर से कहीं जाने नहीं देते। चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म हुआ था इसलिए चतुर्थी या चौथ का व्रत भगवान गणेश को समर्पित है।
करवा चौथ का व्रत और पूजन विधि
करवा चौथ व्रत की खासियत यह है कि यह सूर्योदय से लेकर चंद्रोदय तक निर्जला उपवास के रूप में रखा जाता है। इस दिन विवाहित स्त्रियाँ सुबह सूर्योदय से पहले “सरगी” (सास द्वारा दी गई थाली) खाती हैं और फिर दिन भर जल तक ग्रहण नहीं करतीं। संध्या समय, जब चंद्रमा उदित होता है, तब उसका दर्शन करके और अर्घ्य अर्पित करके ही व्रत खोला जाता है।
Karva Chauth 2026 की पूजा भी ठीक वैसे ही करें जिस प्रकार आप करते आ रहे हैं किन्तु निम्नलिखित बताए गए नियमों में कोई नियम आपको अच्छा लगे तो आप अपनी पूजा में वह नियम भी शामिल कर लें; अगर आप पहली बार करवा चौथ का व्रत रह रहें हैं तो जैसा बताया गया है उसका अनुसरण करें।
(क) व्रत रखने की नियमावली
- करवा चौथ व्रत के एक दिन पहले आपको हल्का खाना-खाना चाहिए।
- अपनी सज्जा-सजावट जैसे मेहँदी, नेल पोलिश, फेशियल आदि सभी आपको एक दिन पहले ही कर लेना चाहिए।
- यह व्रत ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् सूर्य के उदय होने से पहले आरम्भ किया जाता है और चंद्रोदय अर्थात् चंद्रमा दर्शन के पश्चात् खोला जाता है।
- अधिकतर स्त्रियाँ शाम को ही स्नान करती हैं ताकि उनको भूख न लगे किन्तु ऐसा नहीं करना चाहिए।
- सूर्योदय से पहले ही स्नान किया जाता है और रोज़मर्रा की तरह पूजा भी की जाती है तथा उसी समय अपने पति की दीर्घायु व सुख-समृद्धि के लिए करवा चौथ के व्रत का संकल्प लिया जाता है। शाम को आप पुनः स्नान कर सकते हो।
- यह व्रत अपने घर अर्थात् ससुराल में ही रहना चाहिए किन्तु किसी परिस्थिति के तहत आप अपनी माँ के घर भी रह सकते हैं लेकिन फिर पार्टनर साथ होना चाहिए। किसी विषम परिस्थिति में ही आप पति का फोटो देखकर या वीडियो कॉल से व्रत को खोल सकते हैं।
- करवा चौथ की पूजा चंद्रोदय से एक घण्टे पहले ही संपन्न कर ली जाती है। सम्पूर्ण शिव-परिवार की षोडशोपचार पूजा की जाती है।
- जहाँ आप पूजा करने वाले हैं वो दिशा पूर्व होनी चाहिए; आपका मुख पूर्व की तरफ और शिव परिवार का मुख आपकी तरफ होना चाहिए।
- सभी पूजन सामग्री आपकी थाली में होनी चाहिए जैसे चन्दन, कुमकुम, सिंदूर, रोली, धूप, अक्षत आदि तथा दीपक में पर्याप्त घी होना चाहिए जिससे दीपक चंद्र दर्शन के पश्चात् भी प्रज्वलित रहे।
- चंद्र दर्शन, पति दर्शन आदि बची हुई सभी क्रियाएं करनेे के पश्चात् बहु अपनी सास को फल, मिठाई, मेवे, धन, वस्त्र, सोलह श्रृंगार आदि देकर पूर्ण श्रद्धा के साथ सास के चरणों को स्पर्श किया जाता है तथा सासु माँ बहु को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देती हैं।
- सोलह श्रृंगार सुहागिन स्त्री को ही दिए जाते हैं।
- घर में सास ना होने पर नन्द को भी उपर्युक्त सामान दिया जा सकता है।
- दोनों के ना होने पर परिवार में जो स्त्री अपने से बड़ी जैसे जेठानी उपस्थित हो उसको दे सकते हैं अथवा कुछ ना होने पर किसी मंदिर में जाकर पुरोहित की स्त्री को दे सकते हैं।
- पूजा के समय आप करवा चौथ व्रत कथा को पढ़ सकते हैं तथा घर की सभी महिलाओं को इकट्ठा करके किसी भी समय करवा चौथ व्रत कथा को सुना भी सकते हैं।
(ख) पूजन सामग्री की सूची
करवा चौथ की पूजा के लिए विशेष सामग्री तैयार की जाती है। इसमें शामिल हैं—
- करवा (मिट्टी या धातु का बर्तन)
- सोलह श्रृंगार की सामग्री (चूड़ी, बिंदी, सिंदूर, बिछिया, आदि)
- दीपक और धूप
- फल, मिठाई और सूखा मेवा
- छलनी (चंद्रमा को देखने के लिए)
- जल से भरा लोटा और अर्घ्य पात्र
(ग) पूजन एवं चंद्रमा को अर्घ्य देने की विधि
संध्या समय महिलाएँ सोलह श्रृंगार करके पूजा स्थान पर बैठती हैं। करवा चौथ की कथा सुनने के बाद सामूहिक पूजा की जाती है। जब चंद्रमा उदित होता है, तो स्त्रियाँ छलनी से पहले चंद्रमा और फिर अपने पति का दर्शन करती हैं। इसके बाद चंद्रमा को जल अर्पित किया जाता है और पति के हाथ से जल या भोजन ग्रहण करके व्रत खोला जाता है। अर्घ्य देते समय चंद्रमा को तीन बार नमस्कार किया जाता है। चंद्रमा नमस्कार मंत्र “ओउम् सोम सोमाय नमः”।
करवा चौथ व्रत का संकल्प
मैं (अपना नाम) तन-मन धन अपनी सर्वस्व क्षमता से अपनी आत्मा को साक्षी मानकर गंगाजल को नमन करते हुए हाथ में लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ के व्रत का संकल्प लेती हूँ तथा अपने पति-परमेश्वर-स्वामी की दीर्घायु व सुख-समृद्धि के लिए देवी पार्वती से प्रार्थना करती हूँ और अगर मैंने स्वामी के मिलने के बाद तन-मन-धन से केवल स्वामी के बारे में ही स्मरण किया हो तथा किसी अन्य के प्रति गलत भावना क्षणभर भी ना आयी हो तो मैं आदिशक्ति आपसे सदा-सुहागिन रहने का वरदान माँगती हूँ।
पतिव्रता स्त्री
सतित्व का पालन करने वाली कुछ महान स्त्रियों का वर्णन किया जा रहा है जिससे कि आपके भावों को प्रखरता मिले:-
देवी अनुसुइया
सतियों में देवी अनुसुइया का स्थान सर्वोपरि है। देवी अनुसुइया प्रजापति कर्दम और देवहूति की पुत्री थीं। कर्दम और देवहूति की नौ पुत्री थीं जिनमें एक सती अनुसुइया भी थीं। सती अनुसुइया मुनिवर अत्रि की पत्नी थीं। देवी अनुसुइया की पति-भक्ति अर्थात् सतीत्व का प्रताप इतना था कि देवता भी उनको नमन करते थे।
श्री राम के वनवास के समय अत्रि मुनि की कुटिया में श्री राम, लक्ष्मण और माता सीता का आगमन हुआ था; तब देवी अनुसुइया ने माता सीता को पतिव्रत धारण करने का उपदेश दिया था तथा अखंड सौंदर्य की औषधि का निर्माण भी सिखाया था।
एक समय सरस्वती-लक्ष्मी-पार्वती में यह मतभेद हो गया कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? त्रिमूर्तियों से पूछने पर उन्होंने कहा कि इस समय देवी अनुसुइया ही सर्वोपरि हैं। तीनों देवियों को संतुष्ट करने के लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश ने देवी अनुसुइया की परीक्षा लेनी की ठानी।
परीक्षा का निर्णय लेते ही तीनों देव साधुओं का रूप रख अत्रि मुनि की अनुपस्थिति में उनकी कुटिया में भिक्षा मांगने पहुँचे। देवी अनुसुइया ने देवों का आदर-सत्कार करते हुए भिक्षा देने लगी कि तभी देवों ने अपना प्रस्ताव रखा। देवों ने कहा कि हे देवी अगर आप निर्वस्त्र होकर भिक्षा देंगी तभी हम भिक्षा ग्रहण करेंगे। यह जानकर देवी असमंजस में पड़ गयीं और विचारने लगीं।
कुछ क्षण सोचने के पश्चात् देवी कहने लगीं, “यदि मैंने पति के समान कभी किसी दूसरे पुरुष को न देखा हो, यदि मैंने किसी भी देवता को पति के समान न माना हो, यदि मैं सदा मन-वचन-कर्म से पति की आराधना में ही लगी रही हूँ तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों नवजात शिशु हो जाएं”। तीनों देव नवजात शिशु हो गए और देवी अनुसुइया का स्तनपान भी किया।
यही रायता जब अधिक फैल गया तो सरस्वती,लक्ष्मी और पार्वती जी की प्रार्थना पर तथा पति अत्रि के कहने पर देवी अनुसुइया ने तीनों देवों को मुक्त किया लेकिन प्रसन्न होकर देवों ने देवी को वरदान दिया कि हम अपने अंश रूप में आपके गर्भ से जन्म लेंगे तथा आपके पुत्र कहलाएंगे जिनको क्रमशः सोम, दत्तात्रेय और दुर्वासा के नाम से जाना जाता है।
देवी सीता
देवी सीता रामायण का प्रमुख पात्र हैं। माता सीता सतीत्व की शिक्षा देवी अनुसुइया से ली थी। इनके पतिव्रता धर्म के कारण ही रावण इनको छू न सका और जब रावण ने माता सीता का अपहरण किया तब सीता जी रावण की यथार्थ मंशा से अनभिज्ञ थीं। माता सीता अपने प्रचण्ड सतीत्व के कारण ही लंका में हुई अग्नि परीक्षा को सफल कर सकीं। माता सीता के सतीत्व की वास्तविक शक्ति जानने के लिए आपको वाल्मीकि रामायण अवश्य पढ़नी चाहिए।
माता सीता ध्यान समाधि में प्रवीण राजा जनक की पुत्री थीं। किंवदंतियों के अनुसार माता सीता राजा जनक को हल चलाते समय एक संदूक में मिली थीं इसलिए जनक ने उनका नाम सीता रखा क्योंकि सीता का अर्थ होता है हल की नोक। माता सीता का जीवन दर्शन वर्तमान में स्त्रियों को धैर्य, शालीनता और स्वावलंबी होने का संदेश देता है।
माता सीता समृद्धशाली राजा जनक की पुत्री थीं अगर वो चाहती तो श्री राम को वनवास मिलने पर अपने मायके जा सकती थीं लेकिन उन्होंने पतिव्रत धर्म का पालन करना उचित समझा किन्तु आज की स्त्री थोड़ा सा मनमुटाव होने पर ही महीनों मायके रह आती हैं; उनमें भी कुछ महान स्त्रियाँ वो हैं जो विवाहित होते हुए भी, सबकुछ अच्छे चलते रहने पर भी किसी अन्य पुरुष के साथ पलायन कर लेती है।
देवी सीता को अपने चरित्र को लेकर लंका में भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी तथा अयोध्या वापिस आने पर कुछ समय पश्चात् जनता में उनके चरित्र के प्रति संदेह उत्पन्न हुआ तो पुनः वनवास जाना पड़ा किन्तु पतिव्रत धर्म नहीं छोड़ा और कुछ समय पश्चात् जब अयोध्या वापिस आयीं तो अपना अंतिम प्रमाण देते हुए धरती माँ की गोद में सो गयीं। ये थी माता सीता की सहनशीलता तथा ऐसा था उनका धैर्य जो शायद आज नामुमकिन हो।
देवी सावित्री
सती सावित्री अपनी पति-भक्ति के बल पर ही अपने पति सत्यवान को यमराज से वापिस ले आयीं थीं। देवी सावित्री महान तत्वज्ञानी राजर्षि अश्वपति की इकलौती संतान थीं। भ्रमण के दौरान देवी सावित्री ने राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति रूप में स्वीकार कर लिया था।
देवी सावित्री ने इस बात की जानकारी अपने पिता को दी तो राजा अश्वपति ने देवर्षि नारद जी को बुलाया तो नारद जी ने राजा से सत्यवान के अल्पायु होने की बात कही साथ-ही-साथ देवी सावित्री को भी समझाने का प्रयास किया कि वह सत्यवान से विवाह करने का हट त्याग दे किन्तु देवी सावित्री अपने हट पर अडिग रहीं क्योंकि सावित्री सत्यवान को मानसिक रूप से पति मान चूँकि थीं।
इधर राजा द्युमत्सेन का राजपाट छल से छीना जा चुका था। राजा अपनी पत्नी और पुत्र के साथ वन में एक कुटिया बनाकर रहा करते थे। समय के साथ राजा और पटरानी की आँखों की रोशनी भी चली गयी थी। सत्यवान अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा किया करता था। सत्यवान बड़ा ही सुशील और गुड़वान था।
देवी सावित्री के ना मानने पर उनका विवाह सत्यवान के साथ हुआ। विवाह होने के पश्चात् सती सावित्री ने ऐश-आराम की जिंदगी को त्याग कर साधारण वस्त्र धारण किए और सत्यवान के साथ कुटिया में ही रहने लगी। देवी सावित्री अपने पति और सास-ससुर की पूरे मन से सेवा किया करती थी। देवी सावित्री को तनिक मात्र भी इस बात का घमंड नहीं था कि वह एक राजा की बेटी है।
समय वितता गया और वह समय आ ही गया जब सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। देवी सावित्री को चिंता होने लगी; हर रोज की तरह सत्यवान शाम को चूल्हा जलाने के लिए वन से लकड़ी लेने चल दिया क्योंकि सावित्री को उस दिन भोर से ही घबराहट हो रही थी इसलिए हट करने पर सत्यवान ने सावित्री को अपने साथ चलने की अनुमति दे दी।
जैसे ही सत्यवान लकड़ी काटने के लिए पेड़ पर चढ़ा वैसे ही उसको चक्कर आने लगे तो वह नीचे आकर सावित्री के गोद में अपना सर रखकर सो गया और सावित्री अपने पल्लू से हवा करती रही। कुछ क्षण पश्चात् यमराज आए और सत्यवान के प्राण को अपने पाश में बाँधकर चलने लगे; वैसे ही सावित्री ने पूछा हे देव आप कौन है? और मेरे पति को कहाँ लेकर जा रहें हैं।
देव ने कहा, “मैं यमराज हूँ देवी: आपकी पति-भक्ति का तेज इतना प्रबल था कि मेरे दूत आपके पति के पास आ ना सके इसलिए मुझे स्वयं आना पड़ा, देवी आपके पति सत्यवान का समय पूर्ण हुआ अब आप लौट जाओ”। सावित्री ने कहा हे देव जहाँ पति का मार्ग वहीं मेरा मार्ग, पति के पीछे-पीछे चलना तथा उनका अनुसरण करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है क्योंकि इसी कर्म में मेरे जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है।
यमराज देवी सावित्री के सतीत्व से पहले से ही परिचित थे किन्तु वार्तालाव के समय देवी सावित्री की बातों को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए तथा प्रसन्न होकर सावित्री से बोले “मैं सत्यवान के प्राण तो वापिस नहीं कर सकता लेकिन आपके सतीत्व से प्रसन्न होकर मैं आपको तीन वरदान देता हूँ— मांगों देवी क्या वर माँगती हो।
सती सावित्री ने यमराज से पहला वर मांगा कि मेरे सास-ससुर की आँखों की रोशनी आ जाए, यमराज बोले तथास्तु। फिर देवी ने दूसरा वर मांगा कि मेरे ससुर का छीना हुआ राजपाट पुनः मिल जाए, यमराज ने ये भी दिया और कहा मांगों देवी अपना तीसरा वरदान; तब देवी ने कहा कि मैं सत्यवान से सौ संतानों की माँ बनूँ—– यमराज ने कहा तथास्तु।
यमराज ने कहा जाओ देवी अब अपने घर वापिस जाओ फिर सती सावित्री ने कहा हे यमराज आप सत्यवान को तो लेकर जा रहें हैं फिर मैं आपके द्वारा दिया गया तीसरा वरदान किस प्रकार सफल करुँगी। देव फस गए और अपने वचनों के अनुसार उनको सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े तथा देवी सावित्री की कुशाग्र बुद्धि से प्रसन्न होकर देवी को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद भी दिया।
तीनों कथाओं का सार
इतिहास के पन्नों में ऐसी कई महान स्त्रियाँ है जो अपने सतीत्व के कारण जानी जाती है। उन सभी का जीवन दर्शन वर्तमान को यही शिक्षा देता है कि एक स्त्री के लिए पतिव्रत धर्म ही सर्वोपरि है। एक स्त्री ही है जो परिवार को स्वर्ग बना देती है और उसमें यह सामर्थ्य भी है कि परिवार को मट्टी में मिला के नर्क बना दे, स्त्री के अवगुण ही; — ना केवल अपना बल्कि उससे सम्बंधित सभी सदस्यों का सर्वनाश भी कर देते हैं तथा उसके गुणों के कारण देवता भी उस घर में निवास करते हैं और नमन करते हैं।
पति में अवगुण होने पर भी अंतिम फैसला पति का ही मान्य होता है लेकिन पति के अवगुणों को सुधारने का प्रयास पत्नी को अवश्य करना चाहिए जैसे देवी मंदोदरी किया करती थीं लेकिन साथ हमेशा रावण के ही रहीं चाहें परिणाम कुछ भी क्यों न हुआ हो, अगर रावण सत्कर्म में अग्रणी होता तो मंदोदरी का सतीत्व उसको इतिहास के पन्नों में अमर कर देता। तुलसीदास की पत्नी हुलसी के कारण ही वो श्री राम भक्ति में लीन हुए नहीं तो सदा पत्नी के पल्लू से ही लिपटे रहते और उनको आज कोई न जानता।
आधुनिक युग में करवा चौथ
समय के साथ परंपराएँ बदलती रही हैं, लेकिन करवा चौथ का आकर्षण आज भी उतना ही प्रबल है। आधुनिक जीवनशैली और व्यस्त दिनचर्या के बावजूद यह व्रत विवाहित स्त्रियों और युवाओं के बीच लोकप्रिय बना हुआ है। आज करवा चौथ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक उत्सव का रूप ले चुका है, जिसे प्रेम, रोमांस और रिश्तों की गहराई के प्रतीक के रूप में भी देखा जाने लगा है।
(क) बदलती परंपराएँ
पहले करवा चौथ का व्रत सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों या पारंपरिक परिवारों में अधिक प्रचलित था। अब शहरों में भी इसे बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। महिलाएँ डिजाइनर परिधान पहनती हैं, सोलह श्रृंगार करती हैं और आधुनिक अंदाज़ में भी पूजा करती हैं। यहाँ तक कि कई जगहों पर पति भी पत्नी के साथ उपवास रखते हैं, जिससे रिश्ते में समानता और साझेदारी का भाव प्रकट होता है।
(ख) मीडिया और सोशल मीडिया का प्रभाव
फिल्मों, धारावाहिकों और सोशल मीडिया ने करवा चौथ को और लोकप्रिय बना दिया है। टीवी सीरियल्स में दिखाई जाने वाली करवा चौथ पूजा और चाँद देखने के दृश्य ने इसे युवाओं के बीच रोमांटिक त्योहार की पहचान दिलाई। इंस्टाग्राम और फेसबुक पर जोड़े अपनी तस्वीरें और वीडियो साझा करके इस परंपरा को और आकर्षक बनाते हैं।
(ग) युवा पीढ़ी का दृष्टिकोण
आधुनिक युवाओं के लिए करवा चौथ प्रेम और समर्पण का अवसर है। यह परंपरा अब केवल स्त्रियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि पति-पत्नी दोनों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण बन गई है। कई युवा दंपत्ति इसे एक साथ मनाते हैं और इसे रिश्ते की मजबूती का प्रतीक मानते हैं।
करवा चौथ का जीवन दर्शन
करवा चौथ केवल एक व्रत नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक गहरा संदेश भी देता है। यह त्याग, प्रेम, विश्वास और धैर्य का प्रतीक है। पति की लंबी उम्र और सुखमय जीवन के लिए रखा गया यह व्रत यह सिखाता है कि सच्चे रिश्ते केवल भौतिक साधनों पर नहीं, बल्कि भावनाओं और समर्पण पर टिके रहते हैं।
(क) त्याग और प्रेम का संदेश
करवा चौथ व्रत दिखाता है कि प्रेम त्याग के बिना अधूरा है। दिनभर भूख-प्यास सहन करना केवल धार्मिक नियम नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि सच्चा प्रेम कठिनाइयों को सहकर भी अडिग रहता है। इस व्रत के माध्यम से पत्नी अपने पति के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण प्रकट करती है, जो जीवनभर रिश्ते की मजबूती का आधार बनता है।
(ख) परिवार और एकता का दर्शन
यह पर्व परिवार को जोड़ने वाला है। “सरगी” सास-बहू के रिश्ते को मधुर बनाती है और संध्या का सामूहिक पूजन स्त्रियों में आपसी एकता और सहयोग का संदेश देता है। यह बताता है कि जीवन केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि सामूहिकता में ही उसकी पूर्णता है।
(ग) आध्यात्मिक दृष्टिकोण
करवा चौथ आत्म-अनुशासन और धैर्य का अभ्यास कराता है। उपवास और पूजा से मन पर नियंत्रण बढ़ता है और आत्मा को शुद्धि का अनुभव होता है। यह व्रत हमें यह सिखाता है कि सांसारिक प्रेम से ऊपर उठकर त्याग और आस्था ही जीवन का वास्तविक मार्ग है।
निष्कर्ष
करवा चौथ भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक अनमोल पर्व है, जो न केवल पति-पत्नी के रिश्ते की गहराई को दर्शाता है, बल्कि परिवार और समाज में प्रेम, त्याग और एकता का संदेश भी देता है। इस व्रत के माध्यम से स्त्रियाँ अपने जीवनसाथी की दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं, जो वैवाहिक जीवन को और भी पवित्र बना देती है।
आधुनिक युग में भले ही जीवनशैली बदल गई हो, लेकिन करवा चौथ का महत्व आज भी उतना ही प्रासंगिक है। अब यह केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पति-पत्नी दोनों मिलकर इसे प्रेम और समानता के उत्सव के रूप में मनाने लगे हैं। यह परिवर्तन दर्शाता है कि परंपरा समय के साथ बदलते हुए भी अपनी मूल आत्मा को कायम रखती है।
करवा चौथ हमें यह सिखाता है कि रिश्ते केवल औपचारिकता से नहीं निभते, बल्कि सच्चे समर्पण, विश्वास और त्याग से उनका आधार मजबूत होता है। यही जीवन का वास्तविक दर्शन है—जहाँ प्रेम सर्वोच्च है और त्याग उसकी आत्मा।
अंतिम संदेश
यदि आपको यह लेख ज्ञानवर्धक और विचारोत्तेजक लगा हो, तो कृपया इसे अपने मित्रों और परिजनों के साथ साझा करें। आपकी छोटी-सी प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुत मूल्यवान है — नीचे कमेंट करके जरूर बताएं………………..
👇 आप किस विषय पर सबसे पहले पढ़ना चाहेंगे?
कमेंट करें और हमें बताएं — आपकी पसंद हमारे अगले लेख की दिशा तय करेगी।
शेयर करें, प्रतिक्रिया दें, और ज्ञान की इस यात्रा में हमारे साथ बने रहें।
📚 हमारे अन्य लोकप्रिय लेख
अगर हिंदू त्योहार में आपकी रुचि है, तो आपको ये लेख भी ज़रूर पसंद आएंगे:




