परिवार, संस्कार और समाज का विघटन।

प्रस्तावना — परिवार से मनुष्य और मनुष्य से समाज का निर्माण

Samajik Vighatan को समझने के लिए सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि समाज कोई अचानक बना हुआ ढांचा नहीं है — यह उन छोटे-छोटे घोंसलों का समुच्चय है जिन्हें हम परिवार कहते हैं। और परिवार भी हवा में नहीं बनते; वे उन मूल्यों, अनुभवों और संस्कारों की नींव पर खड़े होते हैं जिन्हें पीढ़ियाँ अपने भीतर से आगे बढ़ाती हैं।

हमारे पिता श्री के जमाने तक यह नींव मजबूत थी — संयुक्त परिवारों की, सामूहिक जिम्मेदारियों की, साझा खुशियों-दुखों की, और सबसे बढ़कर “हम” की भावना की। उस समय परिवार सिर्फ एक इकाई नहीं था, एक जीवित चेतना था — जिसमें बच्चा जन्म लेते ही सहयोग, परोपकार, संयम और सम्मान को सांसों की तरह सीख लेता था।

समय बदला।
परिवार छोटा हुआ।
और धीरे-धीरे समाज भी सिकुड़ने लगा।

आज हम ऐसे मोड़ पर आ खड़े हुए हैं जहाँ केवल परिवार ही विघटित नहीं हुआ — बल्कि उसके टूटने के साथ मनुष्य का मन, उसकी सोच, उसके संस्कार और उसकी सहभावना भी बिखरने लगी है। संयुक्त परिवारों से एकल परिवार, और अब सिंगल-पेरेंट संरचना… हर पड़ाव पर “हम” की जगह “मैं” बड़ा होने लगा।

जो व्यक्ति पहले अपने घर-आँगन में एकता, सद्भाव और सहयोग को जीता था, उसने अब खुद को छोटी-सी सीमाओं में बाँध लिया है। रिश्तों का स्वरूप बदला, नैतिकता का अर्थ बदला, और आत्मकेंद्रितता समाज का नया मानक बन गई।

आज प्रश्न सिर्फ यह नहीं कि संयुक्त परिवार क्यों टूटे।
प्रश्न यह है कि—
परिवार के टूटने के साथ हमारे भीतर क्या टूट गया?
हमारे संस्कार, हमारी नैतिकता, या हमारी मानवीयता?

यह प्रस्तावना उसी यात्रा की शुरुआत है —
एक ऐसी यात्रा, जिसमें हम परिवार से समाज तक के उस बिखराव को समझेंगे जो धीरे-धीरे हमारे भविष्य की दिशा तय कर रहा है।

तो इन्हीं सब बातों को लेकर हम आज के विषय का श्री गणेश करते हैं; नमस्ते! Anything that makes you feel connected to me — hold on to it. मैं Aviral Banshiwal, आपका दिल से स्वागत करता हूँ|🟢🙏🏻🟢

संयुक्त परिवार का विघटन: संस्कारों का धीमा क्षय

संयुक्त परिवार सिर्फ कई व्यक्तियों का समूह नहीं था— वह एक ऐसी जीवित पाठशाला था जहाँ बच्चा जन्म लेते ही जीवन के सबसे बड़े पाठ बिना किताब, बिना उपदेश, बिना कोशिश के सीख जाता था। यहाँ हर कमरे में एक अनुभव था, हर बुजुर्ग एक मार्गदर्शक था, हर परिस्थिति एक सीख थी, और हर रिश्ते में एक जिम्मेदारी छुपी थी। बच्चा बोलना बाद में सीखता था, पर सहयोग, संयम, संवेदना और त्याग पहले सीख जाता था।

लेकिन समय के साथ यह प्राकृतिक शिक्षण तंत्र टूट गया। और यह टूटना अचानक नहीं हुआ—धीरे-धीरे, चुपचाप, और अनदेखा होता रहा।

1. संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी देन: परोपकार और व्यापक सोच

जब एक घर में 8-10 लोग रहते थे, तब बच्चा हर रोज देखता था—
• कोई किसी के लिए पानी भर रहा है
• कोई किसी के बच्चे को संभाल रहा है
• कोई रोगी की सेवा कर रहा है
• कोई घर की आर्थिक जिम्मेदारी उठा रहा है
• कोई बुजुर्ग नियम सिखा रहा है

इस पूरे वातावरण में “मैं” नाम की भावना जन्म ही नहीं लेती थी। बच्चा यह मानकर बड़ा होता था कि— जीवन का अर्थ सिर्फ अपने लिए जीना नहीं है।

2. लेकिन जब परिवार छोटा हुआ, सोच भी छोटी हो गई

एकल परिवार आते ही बच्चा वह बड़ा संसार नहीं देख पाया। वह सिर्फ अपने माता-पिता की सीमित जीवन-दृष्टि में पला। माता-पिता भी इतने व्यस्त होते गए कि उनके पास “संस्कार देना” एक सतत प्रक्रिया के रूप में बचा ही नहीं। संस्कार अब “समय मिलने पर दी जाने वाली सलाह” बन गए। और जहाँ संयुक्त परिवार में बच्चा 8-10 अलग-अलग व्यक्तित्वों को देखकर सीखता था, वहीं आज वह दो ही व्यक्तियों तक सीमित हो गया। इससे उसकी भावनात्मक सीमा भी सिकुड़ गई।

3. संस्कारों की गिरावट कैसे शुरू हुई?

यह गिरावट एक झटके में नहीं आई— आज की पीढ़ी तो सिर्फ उसका परिणाम देख रही है। असल गिरावट यहाँ से आरंभ हुई:

  • परिवार में बुजुर्गों का कम होना
  • परंपराओं का पालन “औपचारिकता” बनना
  • सभी का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना
  • जीवन में व्यस्तता और समय की कमी
  • रिश्तों का महत्व घटना
  • “परोपकार” का स्थान “व्यक्तिगत सफलता” लेना
  • बच्चों का पालन मल्टी-टास्किंग पैरेंट्स या आया के हाथ
  • संस्कार शब्द का “ओल्ड फैशन” बन जाना

धीरे-धीरे घर वह स्कूल ही नहीं रहा जहाँ जीवन की असली शिक्षा मिलती थी।

4. परिणाम: मनुष्य बदल गया, समाज बदल गया

जब संयुक्त परिवार खत्म हुआ तो मनुष्य का मन भी बदलने लगा। पहले जो बच्चा परोपकार देखकर सीखता था, अब सिर्फ “Self-care”, “My space”, “My life” से घिरा है। पहले जो बच्चा प्रेम से बड़ा होता था, अब सलाहों और स्क्रीन से बड़ा हो रहा है।

पहले जो बच्चा “सबका” था, अब सिर्फ “अपनों” तक सीमित है। और यही सीमितता आगे चलकर समाज की सीमितता बन गई। यही वो क्षण था जहाँ संस्कारों का क्षय शुरू हुआ — और मनुष्य का स्वभाव बदलने लगा। संयुक्त परिवार के टूटने का अर्थ सिर्फ घर छोटा होना नहीं था, यह चिंतन, दृष्टि और नैतिकता के संकुचन का आरंभ था।

एकल परिवार से सिंगल-पेरेंट संरचना: स्वकेंद्रितता का बढ़ता युग

संयुक्त परिवार से एकल परिवार की यात्रा सिर्फ एक सामाजिक बदलाव नहीं थी— यह मनुष्य के मन, उसकी चिंतन-प्रणाली और उसकी व्यक्तिगत सीमा के धीरे-धीरे सिकुड़ने की यात्रा थी। एकल परिवार आधुनिकता का प्रतीक बना, पर उसके भीतर एक ऐसी चुप्पी पैदा हुई जिसने मनुष्य की सोच को “हम” से हटाकर “मैं” के केंद्र में ला खड़ा किया।

1. एकल परिवार का नया ढाँचा: सुविधा अधिक, भावनात्मक स्पेस कम

एकल परिवार में सुविधा तो बढ़ी— प्राइवेसी, स्वतंत्रता, फैसले लेने की आज़ादी… पर इसके साथ ही कुछ सूक्ष्म लेकिन गंभीर परिवर्तन भी आए:

  • बच्चे अब कम रिश्ते देखते हैं
  • कम व्यक्तित्वों से सीखते हैं
  • कम सामाजिक परिस्थितियों से गुजरते हैं
  • कम सहयोग और त्याग के अनुभव पाते हैं

संयुक्त परिवार में बच्चा जिन 20–25 भावनात्मक स्थितियों से रोज़ गुजरता था, अब वह महज़ 3–4 स्थितियों तक सीमित हो गया है। यही सीमितता आगे चलकर उसकी सोच में भी उतर जाती है।

2. एकल परिवार → सीमित मानसिक दायरा

एकल परिवार का सबसे बड़ा असर बच्चे पर पड़ता है। वह अनजाने में यह सीखने लगता है कि—

“मेरे घर = दुनिया।
मेरे माता-पिता = पूरा समाज।”

न कोई चाचा, न ताऊ, न बुआ, न मामा… न कोई बड़ा संयुक्त तंत्र जहाँ बच्चा साझा भावनाएँ महसूस करे।

इसका असर ये होता है:

  • उसे “हम” की जगह “मेरा” शब्द अधिक परिचित हो जाता है
  • वो अपने हित को सबसे ऊपर रखता है
  • उसकी समस्याएँ भी उसे ही बड़ी लगती हैं
  • उसे सहयोग की कला कम मिलती है
  • और धैर्य, सहनशीलता, समायोजन — ये गुण स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होते

एक छोटा परिवार मानो छोटी दुनिया बन जाता है— जहाँ से मन उतना ही देखता, सीखता और समझता है।

3. और अब… एकल परिवार धीरे-धीरे सिंगल-पेरेंट समाज में बदल रहा है

यह वो मोड़ है जहाँ समाज की संरचना एक और छलाँग ले रही है। बढ़ते तलाक, Live-in संबंध, नौकरी की मार, परिवार के बोझ का डर — इन सबने एक नई स्थिति पैदा कर दी है:

सिंगल-पेरेंट परिवार।

यहाँ बच्चे का सम्पर्क एक ही व्यक्ति से होता है— सारी भावनाएँ, सारे मूल्य, सारी प्रतिक्रियाएँ… सब एक ही स्रोत से आती हैं। बच्चा मानसिक रूप से “बहु-स्रोत” सीख की जगह “single source learning” पर निर्भर हो जाता है।

4. परिणाम: बच्चे की personality धीरे-धीरे स्वकेंद्रित होने लगती है

जब एक ही व्यक्ति दुनिया बन जाए, तो बच्चे की personality स्वतः ही निम्न दिशा में विकसित होती है:

  • Low tolerance (सहनशीलता कम)
  • Limited empathy (दूसरों की भावनाओं को कम समझ पाना)
  • High self-focus (अपना हित पहले, दूसरों का बाद में)
  • Low adjustment capacity (समायोजन क्षमता कमजोर)
  • Over-sensitivity (छोटी बातों से आहत हो जाना)
  • Self-priority mindset (हमेशा खुद को प्राथमिकता देना)

ये सब गुण किसी “एक घटना” से नहीं आते— ये पारिवारिक संरचना से आते हैं।

5. और यही वह बिंदु है जहाँ समाज का चरित्र बदलने लगता है

परिणाम सिर्फ एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता— ये पूरे समाज के स्वभाव को प्रभावित करता है।

  • छोटी-छोटी बातों पर रिश्ते टूटना
  • रिश्तों में जल्दी थकान
  • “मुझे क्या मिलता है?” वाली मानसिकता
  • सहयोग का कम होना
  • त्याग का लगभग गायब हो जाना
  • धैर्य का खत्म होना
  • हर चीज़ में “My Comfort First” दृष्टिकोण

ये सब उस समाज के लक्षण हैं जो एकल परिवारों और सिंगल-पेरेंट सिस्टम के प्रभाव में विकसित हो रहे हैं।

यह बदलाव सिर्फ सामाजिक नहीं — मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक है

परिवार छोटा हुआ।
दायरा सिकुड़ा।
सोच भी संकुचित हो गई।

स्वकेंद्रितता आज के समाज की सबसे बड़ी पहचान बन गई है, और यह शुरुआत उसी दिन से हुई जब संयुक्त परिवार धीरे-धीरे इतिहास बनने लगा।

रिश्तों की परिभाषा का बदलना: ‘भाई-बहन’ से ‘कौन-कौन?’ तक

किसी भी समाज की नींव उसके रिश्तों पर टिकी होती है। रिश्ते सिर्फ नाम नहीं होते—वे व्यवहार, मर्यादा, सम्मान और दूरी-पहचान की नैतिक लकीरें तय करते हैं। और कभी एक समय था जब ये लकीरें स्वाभाविक थीं, बोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी।

मामा की बेटी बहन होती थी। बुआ का बेटा भाई होता था। दूर के चाचा, ताऊ, फूफा… सब रिश्तों की गर्मी से जुड़े हुए थे। यहाँ तक कि पिताजी के दोस्त, माँ की सहेलियाँ — उनका भी एक संबोधन-संस्कार होता था।

रिश्ते “खून” से नहीं, “संस्कार” से तय होते थे।

1. पहले रिश्ते पहचान से पहले “मर्यादा” थे

पुराना समाज भले ही आर्थिक रूप से सीमित था, पर रिश्तों के मामले में समृद्ध था। हर बच्चा यह जानकर बड़ा होता था कि—

  • कौन बहन है
  • कौन भाई है
  • किससे मज़ाक की सीमा तक रहनी है
  • किससे किस दूरी पर बात करनी है
  • किससे कैसा व्यवहार रखना है

यह सब किसी ने समझाया नहीं होता, वातावरण से अपने आप जीवन में उतर जाता था।

रिश्ते सुरक्षित थे।
रिश्तों की दिशा स्पष्ट थी।
और नैतिकता की रेखा बहुत मज़बूत थी।

2. लेकिन समय के साथ यह पूरा ढाँचा ढह गया

अब रिश्तों का स्वरूप बदल गया है— इतना बदला कि कई जगह पहचान, सम्मान और मर्यादा—सबकुछ धुंधला पड़ गया है।

  • मामा की बेटी अब बहन नहीं कहलाती
  • बुआ का बेटा केवल “cousin” बन गया
  • दूर के रिश्तेदारों से रिश्ता लगभग समाप्त
  • पड़ोसियों का महत्व शून्य
  • माता-पिता के मित्रों से अब कोई सम्बन्ध नहीं
  • रक्त संबंधों में भी दूरी और अनिश्चितता बढ़ती जा रही है

पर सबसे बड़ा बदलाव यह है कि— अब लोग रिश्तों को नाम देने के बजाय “status” देखने लगे हैं।

3. रिश्तों का टूटना → नैतिकता का ढीलापन

जब रिश्तों की स्पष्टता कम होती है, तो नैतिकता की रेखा भी फीकी पड़ने लगती है। पहले जो रिश्ते बिल्कुल पवित्र थे, आज वही रिश्ते confusion और boundaryless interaction का रूप लेने लगे हैं।

  • जहाँ पहले मर्यादा स्पष्ट थी, अब फिसलन है
  • जहाँ पहले “ये बहन है” निश्चित था, अब “देखते हैं रिश्ता क्या है?” जैसी अनिश्चितता है
  • जहाँ पहले रिश्ते सुरक्षित थे, अब वे असुरक्षा बन रहे हैं

यही कारण है कि संबंधों में विकृति, गलत आकर्षण और चरित्र का पतन अधिक होता दिख रहा है।

4. पहले 100 में 1 घटना थी, अब 10 में 2–3 सुनाई दे रही हैं

पहले जो बातें कई सालों में एक-दो बार सुनाई देती थीं, आज हर गली-मोहल्ले में आम हो चुकी हैं।

यह इसलिए नहीं कि समाज अचानक “बुरा” हो गया,
बल्कि इसलिए कि:

  • रिश्तों की नींव कमजोर हुई
  • सीमाएँ टूट गईं
  • पड़ोसी और परिजन अब सामाजिक सुरक्षा चक्र का हिस्सा नहीं
  • बच्चे और युवा अकेले बढ़ रहे हैं, emotional guidance के बिना
  • आधुनिक संस्कृति ने रिश्तों की पवित्रता को “old-fashioned” समझ लिया
  • सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को “हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध” बना दिया

और धीरे-धीरे रिश्तों की वह दीवार गिर गई जो कभी समाज को नैतिक और सुरक्षित बनाती थी।

5. और यही वह बिंदु है जहाँ समाज का चरित्र बदलने लगा

जब “बहन” बहन नहीं रही, जब “भाई” भाई नहीं रहा, जब मर्यादा को पहचान से पहले नहीं रखा गया— तभी समाज में वह कठिन गिरावट शुरू हुई जिसके परिणाम हम आज हर जगह देखते हैं। रिश्तों की परिभाषा बदलते ही मनुष्य की सीमाएँ बदली, मानसिकता बदली, और समाज की नैतिकता ढहने लगी।

मोबाइल, इंटरनेट और मानसिक आशक्ति — ज्ञान आसान हुआ, पर मन भारी हुआ

मानव इतिहास में शायद ही कोई साधन इतना तेजी से फैला हो जितना मोबाइल। और शायद ही कोई साधन इतना “दोगुना” प्रभाव डालता हो— सुविधा भी देता है, और मन पर बोझ भी। मोबाइल ने जानकारी को आसान कर दिया, लेकिन अनुभव, स्मरण और मानसिक शांति — इन सबको धीरे-धीरे कम कर दिया। पहले ज्ञान कम था, पर मन स्थिर था। अब ज्ञान बहुत है, पर मन बिखरा हुआ है।

1. पहले सीखने में मेहनत थी, इसलिए फल भी गहरा था

मोबाइल से पहले लोग—

  • लिखते थे
  • नोट्स बनाते थे
  • सुनते व याद करते थे
  • बुजुर्गों से सीखते थे
  • अनुभवों से अर्थ निकालते थे

ये सारी क्रियाएँ दिमाग़ को शक्तिशाली बनाती थीं। मन की पकड़ मजबूत होती थी। याददाश्त भी तेज होती थी, और विचारों की गहराई भी। अब सीखने का अर्थ बदल गया है— याद रखने की नहीं, “सर्च करने की” क्षमता होनी चाहिए।

2. मोबाइल ने सुविधा दी, लेकिन दिमाग़ को “बाहरी सहारा” बना दिया

अब लोग सोचते नहीं, सीधे Google करते हैं। याद नहीं रखते, सीधे save कर देते हैं। विचार नहीं करते, सीधे किसी वीडियो की राय ले लेते हैं। इससे एक subtle लेकिन गहरा परिवर्तन आया है—

  • दिमाग़ कम उपयोग होने लगा
  • निर्णय क्षमता कमज़ोर हुई
  • सूचना बहुत, पर समझ कम
  • हर चीज़ तुरंत चाहिए — patience खत्म
  • मन में “scatteredness” बढ़ी
  • ध्यान (focus) की क्षमता लगातार गिर रही है

मोबाइल ने ज्ञान तो दिया, पर मन को “डोपामिन की लत” दे दी।

3. दिमाग़ व्यस्त हुआ, पर सीखने की शक्ति घट गई

पहले जो दिमाग़ गहराई में उतरता था, अब सिर्फ़ notifications में उलझा रहता है। काम आसान हुआ, पर मन आशक्त हो गया।

आज हर व्यक्ति—
👉 सुबह मोबाइल खोलता है
👉 दिनभर मोबाइल चेक करता है
👉 रात मोबाइल देखकर सोता है

यहाँ तक कि छोटा बच्चा भी खाने के लिए मोबाइल चाहता है, सोने के लिए मोबाइल चाहता है, खेलने के लिए मोबाइल चाहता है। बच्चे दुनिया “देखकर” नहीं सीख रहे, बच्चे स्क्रीन “देखकर” सीख रहे हैं।

4. मोबाइल ने परिवारों में बातचीत को घटा दिया

पहले भोजन के समय बातचीत होती थी— अब हर प्लेट के पास एक स्क्रीन है। पहले बुजुर्ग कहानियाँ सुनाते थे— अब YouTube सुनाता है। पहले माता-पिता बच्चे के मन को समझते थे— आज बच्चे का मन मोबाइल समझता है। मोबाइल ने सुविधा दी, लेकिन उससे बड़ा नुकसान यह हुआ कि मानव-मानव संपर्क टूटने लगा। और जब परिवार के भीतर संवाद कम होता है, तो बच्चे भावनात्मक रूप से दिशाहीन होते जाते हैं।

5. मानसिक बोझ: दिमाग़ थका नहीं, पर भारी हमेशा रहता है

जितना अधिक मोबाइल में है, उतना ही कम मन में शांति है।

  • लगातार comparison
  • लगातार नए trends
  • लगातार new things to desire
  • लगातार mental noise
  • लगातार speed
  • लगातार distraction

इसके बीच आज का मनुष्य चाहता कुछ है, करता कुछ है, सोचता कुछ है— और अंत में मन हमेशा थका हुआ रहता है। मोबाइल ज्ञान का साधन है, पर मन का विकार तब बनता है जब उसे “नियंत्रण” नहीं किया जाता। पहले मन स्थिर था, अब मन हमेशा “alert mode” में रहता है। पहले व्यक्ति अपने विचारों से बनता था, अब व्यक्ति social media की सामग्री से बन रहा है।

विवाह की बदलती व्यवस्था: पास से दूर तक, और रिश्तों का कमजोर होना

पहले विवाह सिर्फ़ दो व्यक्तियों का मिलन नहीं था— यह दो परिवारों, दो घरों, दो संस्कृतियों और दो समाज-चक्रों का जुड़ना था। विवाह पास-पड़ोस, एक ही गाँव, एक ही समुदाय में होते थे ताकि:

  • सुरक्षा बनी रहे
  • नारी सुरक्षित रहे
  • परिवारों का साथ बना रहे
  • कोई समस्या हो तो तुरंत मदद पहुँचे
  • रिश्तों में “सम्बंध की गर्मी” हमेशा बनी रहे

यह सिर्फ़ परंपरा नहीं थी — यह एक सुरक्षा तंत्र था जिसे सदियों के अनुभव ने बनाया था। लेकिन जैसे ही आधुनिकता आई, विवाह “पास” से “बहुत दूर” तक फैलने लगे — और इसके साथ ही रिश्तों का वह सुरक्षा चक्र भी टूटने लगा।

1. पहले पास-पड़ोस में शादी का उद्देश्य सिर्फ सुविधा नहीं, सुरक्षा था

जब शादी आसपास होती थी:

  • लड़की सुरक्षित रहती थी
  • दोनों परिवार साथ रहते थे
  • भाग-दौड़ कम थी
  • कोई भी घटना तुरंत परिवार तक पहुँचती थी
  • झगड़े, दुख, बीमारी, दुःख—सबमें परिवार खड़ा रहता था
  • रिश्तों में शर्म, संकोच, मर्यादा और सामूहिकता बनी रहती थी

विवाह “एक सामाजिक तंत्र” था जहाँ लड़की अकेली नहीं पड़ती थी— उसके पीछे पूरा मोहल्ला, पूरा गाँव खड़ा रहता था।

2. दूर विवाह ने सबसे पहले रिश्तों की गर्मी को कम किया

जैसे-जैसे विवाह दूर होने लगे:

  • लड़की परिवार से कटने लगी
  • माता-पिता का हस्तक्षेप कम
  • भाई-बहन का समर्थन दूर
  • दामाद का समाज अजनबी
  • लड़की का सामाजिक दायरा सीमित
  • समस्या जितनी बड़ी, उतनी देर से किसी को पता चलना

लड़की की सुरक्षा सामाजिक थी— अकेले माता-पिता की नहीं। लेकिन अब समाज से दूरी = सुरक्षा से दूरी।

3. और सबसे बड़ा जोखिम — अत्याचार का देर से पता चलना

पहले पास-पड़ोस की शादी का मतलब यह था कि यदि किसी लड़की के साथ दुराचार, अत्याचार, हिंसा या मानसिक कष्ट होता, तो एक-दो दिन में बात परिवार तक पहुँच जाती थी।

पर अब?

  • लड़की कई सौ किलोमीटर दूर
  • परिवार साल में 2–3 बार मिलने वाला
  • समाज अपरिचित
  • पड़ोसियों से पहचान नहीं
  • लड़की तक पहुँचने का कोई माध्यम नहीं
  • माता-पिता को दर्द का पता बहुत देर से चलता है

और कई बार— लड़की सहती रहती है, क्योंकि कहने का कोई माध्यम नहीं, और जाने का कोई रास्ता नहीं। यह आधुनिक समाज की सबसे दुखद स्थिति है।

4. “Distance Marriage” ने रिश्तों में सहभागिता को खत्म कर दिया

पहले दोनों परिवार “एक” हो जाते थे— त्योहार, दुख-सुख, जन्म-मरण सब साझा।

अब दूर विवाह =

  • दामाद के परिवार से कम निकटता
  • रिश्तेदारी औपचारिक
  • दूरी के कारण कम मुलाकात
  • आयोजन बंधनों पर आधारित
  • समस्या आने पर “व्यवस्था” की दिक्कत
  • और इसलिए रिश्तों का ठंडा पड़ना

दूरी सिर्फ़ भूगोल में नहीं आई, दूरी दिलों में भी आई है।

5. नई पीढ़ी के विवाह: अधिकार पहले, कर्तव्य बाद में

आधुनिक विवाह की मानसिकता भी बदल गई है। अब विवाह होते ही:

  • पति खुद को “मालिक” समझना चाहता है
  • पत्नी खुद को “समान मालिक” से भी ऊपर मानने लगती है
  • दोनों अपने-अपने अधिकार पहले जताते हैं
  • कर्तव्यों की समझ कम होती है
  • धैर्य कम
  • त्याग कम
  • अहं बहुत अधिक

पहले जहाँ विवाह “संयम + संस्कार” से चलता था, अब विवाह “ego + expectation” पर चलने लगा है। और जब त्याग नहीं, तो रिश्ते लंबे नहीं चलते।

6. सामाजिक सुरक्षा तंत्र कमजोर हुआ = रिश्ते असुरक्षित हुए

विवाह का ढाँचा बदला नहीं है— विवाह की नींव बदली है। पहले नींव सामाजिक थी। अब नींव सिर्फ़ दो व्यक्तियों पर टिक गई है। जब परिवार पीछे खड़ा हो, तो रिश्ता मजबूत रहता है। जब व्यक्ति अकेले हों, तो रिश्ता छोटी सी बात पर टूट जाता है। विवाह की दूरी सिर्फ यात्रा की दूरी नहीं — यह रिश्तों, संस्कारों और सुरक्षा की दूरी बन गई है। यह बदलाव समाज को एक ऐसे मोड़ पर ले आया है जहाँ विवाह का ढाँचा आधुनिक दिखता है, लेकिन अंदर से कमजोर पड़ता जा रहा है।

लेख–1 का समापन

इस पहले भाग में हमने परिवार के ढाँचे के टूटने से लेकर रिश्तों के बदलते स्वरूप, स्त्री–पुरुष संबंधों की नई उलझनों, और आधुनिक जीवन की मानसिक अशांतियों को समझा। लेकिन यह कहानी यहीं पूरी नहीं होती—असल परेशानी वहाँ से शुरू होती है जहाँ मनुष्य की सबसे मूल ऊर्जा, sexual urge, दिशाहीन होने लगती है।

दूसरे भाग में हम समाज के इसी छिपे हुए पक्ष में उतरेंगे—जहाँ बढ़ती समलैंगिकता, Freud की psychosexual theory, भारतीय ऋषियों की काम-ऊर्जा की आध्यात्मिक व्याख्या, परिवार से मिलने वाले संस्कारों का क्षय, बच्चों के personality development पर इसके प्रभाव, और कलयुग की संभावित दिशा जैसे गंभीर विषय हमारे सामने खुलकर आएँगे।

अगर लेख-1 समाज के “बाहरी विघटन” को समझता है,
तो लेख-2 मनुष्य के “आंतरिक विघटन” को उजागर करेगा।

यही कारण है कि दूसरा भाग इस चर्चा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगा—जहाँ हम देखेंगे कि आज का समाज कहाँ जा रहा है, और आने वाले वर्षों में उसकी दिशा कितनी खतरनाक या परिवर्तनकारी हो सकती है।

अंतिम संदेश

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