Sexual Urge and Spiritual Growth मनुष्य का जन्म कुछ स्वाभाविक प्रवृत्तियों के साथ होता है, जिनमें से काम (sexual urge) भी एक महत्वपूर्ण और प्राकृतिक इच्छा है। यह कोई दोष नहीं, बल्कि सृष्टि की निरंतरता के लिए आवश्यक जैविक व्यवस्था है। भारतीय दर्शन में काम को चार पुरुषार्थों में से एक माना गया है, और यही हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है। हालांकि, काम को केवल शारीरिक दृष्टिकोण से देखना एक संकुचित सोच है।
भारतीय जीवनदर्शन के अनुसार, काम केवल शारीरिक आवश्यकताओं का पूरक नहीं है, बल्कि यह आत्मविकास के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा जाता है। नमस्ते! Anything that makes you feel connected to me — hold on to it. मैं Laalit Baghel, आपका दिल से स्वागत करता हूँ 🟢🙏🏻🟢 आज हम समझेंगे कि कैसे यही काम मुक्ति का मार्ग बनता है और कैसे सर्वनाश का मार्ग भी।
काम: एक स्वाभाविक प्रवृत्ति और आध्यात्मिक साधना
काम का आध्यात्मिक पहलू
भारतीय वेद, उपनिषद और अन्य धार्मिक ग्रंथों में काम की स्वाभाविकता और उसकी दिशा पर जोर दिया गया है। वेदों के अनुसार, काम केवल भोग की इच्छा नहीं है, बल्कि इसे एक उद्देश्यपूर्ण साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है। काम का सही दिशा में उपयोग, यानी शारीरिक इच्छाओं और भावनाओं को नियंत्रित करके, व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जा सकता है। इसे सही तरीके से समझने के लिए भारतीय आश्रम प्रणाली को ध्यान में रखना आवश्यक है, जिसमें काम को एक संयमित और नियंत्रित साधन के रूप में देखा जाता है।
काम की स्वाभाविकता और नियंत्रण
भारत की आश्रम व्यवस्था के अनुसार, काम की इच्छा पर नियंत्रण और संयम रखना पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में सिखाया जाता है। इस आश्रम में काम को पहचाना जाता है, लेकिन उसे वश में रखने का अभ्यास कराया जाता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल शारीरिक संयम नहीं, बल्कि मन, वाणी, और दृष्टि का भी नियंत्रण है। इसे एक आध्यात्मिक साधना के रूप में देखा जाता है, जो व्यक्ति को आत्मबल और आत्मसाक्षात्कार की ओर मार्गदर्शन करता है।
यहाँ काम की इच्छा को वर्जित या नकारात्मक नहीं माना जाता, बल्कि इसे एक प्राकृतिक शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसे व्यक्ति को आत्मनिर्भरता और आध्यात्मिक प्रगति के लिए सही दिशा में मोड़ने की आवश्यकता है।
काम की इच्छा और ब्रह्मचर्य: संयम और अनुशासन
काम की इच्छा एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो जीवन के प्रारंभ से ही व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। यह कोई दोष नहीं है, बल्कि यह प्रकृति का हिस्सा है, जो सृष्टि के चक्र को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। लेकिन भारतीय दर्शन में, काम को केवल शारीरिक आवश्यकता के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि इसे एक गहरी आध्यात्मिक साधना के रूप में मान्यता दी जाती है। यही कारण है कि ब्रह्मचर्य को भारतीय जीवन प्रणाली में पहला आश्रम माना गया है, जो जीवन के एक महत्वपूर्ण और पवित्र चरण के रूप में कार्य करता है।
ब्रह्मचर्य आश्रम और काम पर नियंत्रण
ब्रह्मचर्य आश्रम वह समय होता है जब एक व्यक्ति अपनी यौन इच्छाओं को नियंत्रित करने का अभ्यास करता है। यह केवल शारीरिक संयम नहीं है, बल्कि मन, वाणी और दृष्टि तक का संयम है। ब्रह्मचर्य का अभ्यास जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से सशक्त बनाता है, और यह स्वयं की पहचान को स्पष्ट करने में मदद करता है। इस आश्रम में काम की इच्छा को पहचाना जाता है, लेकिन उसे नियंत्रित और उद्देश्यपूर्ण रूप में अपनाया जाता है।
भारतीय संत और योगी इस अवधारणा को अपने जीवन का आधार मानते हैं, क्योंकि काम यदि बिना नियंत्रण के होता है, तो यह व्यक्ति को भटकाव और सांसारिक लिप्साओं की ओर ले जा सकता है। लेकिन यदि इसे संयम और आत्मनियंत्रण के साथ लिया जाए, तो यह व्यक्ति को उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।
संयमित जीवन का आध्यात्मिक लाभ
संयमित जीवन का आध्यात्मिक दृष्टिकोण में बहुत महत्व है। ब्रह्मचर्य के अभ्यास से आत्मिक बल और आध्यात्मिक जागरूकता में वृद्धि होती है। जब व्यक्ति अपने यौन इच्छाओं को नियंत्रित करता है, तो उसकी मानसिक स्थिति शांत और स्थिर होती है, जिससे उसकी आध्यात्मिक चेतना का स्तर उच्च होता है। संयमित जीवन, विशेषकर ब्रह्मचर्य के दौरान, व्यक्ति को सच्चाई, शांति, और समझ की ओर ले जाता है, और यह उसे जीवन के उच्चतम उद्देश्यों की ओर अग्रसर करता है।
इसके अलावा, संयमित जीवन का अभ्यास व्यक्ति की ऊर्जा को सही दिशा में मोड़ता है, जो उसकी योग्यता, साधना, और आध्यात्मिक अनुभव को और गहरा बनाता है। यह संयम, यदि पूरे जीवन में स्थायी रूप से शामिल किया जाए, तो आध्यात्मिक उन्नति की राह खोलता है।
गृहस्थाश्रम में काम: एक पवित्र उद्देश्य
गृहस्थाश्रम, भारतीय जीवन की आश्रम व्यवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण चरण है, जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्यों को और अधिक स्पष्ट रूप से समझता है। इस आश्रम में काम का उद्देश्य मात्र शारीरिक संतुष्टि नहीं, बल्कि धर्म, समाज, और परिवार के प्रति जिम्मेदारी होती है। भारतीय समाज में विवाह के माध्यम से काम को धार्मिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है, और यही कारण है कि यह आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बन जाता है।
काम और संतानोत्पत्ति का संबंध
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के बाद काम की संतानोत्पत्ति से जुड़ी जिम्मेदारी प्रमुख हो जाती है। इसे केवल शारीरिक संबंधों के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि यह परिवार निर्माण, प्रेम, और समाज के उत्तरदायित्व का भी हिस्सा है। भारतीय धर्म के अनुसार, काम का उद्देश्य संतानोत्पत्ति होता है, जो समाज की निरंतरता और विकास के लिए आवश्यक है। विवाह संस्कार के दौरान, काम को पवित्र कार्य के रूप में देखा जाता है, जिससे पारिवारिक जीवन की नींव मजबूत होती है।
इस संदर्भ में, काम की इच्छा को धर्म से जुड़ा हुआ माना जाता है, न कि किसी तात्कालिक भोग की इच्छा के रूप में। इस आश्रम में व्यक्ति को यह सिखाया जाता है कि काम की इच्छा केवल शारीरिक संतुष्टि के लिए नहीं है, बल्कि यह पारिवारिक सुख, जिम्मेदारी, और समाज की सेवा का एक माध्यम बन सकता है।
काम के पवित्र उद्देश्य की मर्यादा
गृहस्थाश्रम में काम की इच्छा को नियंत्रित करना एक महत्वपूर्ण कार्य है। हालांकि यह एक धार्मिक कर्तव्य बन जाता है, लेकिन इसकी मर्यादा भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसे केवल संतानोत्पत्ति और पारिवारिक उद्देश्य के लिए सीमित किया जाता है, न कि कोई अन्य उद्दंडता या वासना। इस तरह, काम का उद्देश्य समाज और परिवार के भले के लिए होता है, और इसके विनियोग में संयम और मर्यादा का पालन करना आवश्यक है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, गृहस्थाश्रम में काम एक साधना के रूप में देखा जाता है, जो व्यक्ति को जीवन के उच्चतम उद्देश्यों की ओर अग्रसर करता है। यहाँ काम का उपयोग व्यक्तिगत सुख से ज्यादा समाज और धर्म के हित में किया जाता है, जिससे व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है।
शास्त्रीय मर्यादा: काम का सही उपयोग
काम को भारतीय दर्शन में एक स्वाभाविक और आवश्यक प्रवृत्ति माना गया है, जो जीवन के विभिन्न उद्देश्यों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। हालांकि यह स्वाभाविक है, इसे शास्त्रीय दृष्टिकोण से मर्यादित और नियंत्रित किया जाता है। भारतीय संस्कृति में काम को मात्र शारीरिक तुष्टि के रूप में नहीं देखा जाता, बल्कि यह एक उद्देश्यपूर्ण और पवित्र कृत्य होता है, जिसे संयमित और जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए।
विवाह के बाद काम की अनुमति और उसके उद्देश्य
भारतीय समाज में विवाह को केवल दो व्यक्तियों के बीच प्रेम का एक गठबंधन नहीं, बल्कि यह एक धार्मिक कर्तव्य और आध्यात्मिक जिम्मेदारी के रूप में माना जाता है। विवाह के बाद ही काम की स्वीकृति होती है, और यह केवल संतानोत्पत्ति और पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए ही होता है।
विवाह के बाद काम को एक धार्मिक और आध्यात्मिक कार्य के रूप में देखा जाता है, जहां उसका उद्देश्य केवल भोग की तुष्टि नहीं, बल्कि जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की प्राप्ति होता है। विवाह में काम की अनुमति तभी होती है जब वह पारिवारिक उत्तरदायित्व, समाज की निरंतरता, और संतानोत्पत्ति से जुड़ा हो।
इस परिप्रेक्ष्य में, काम को एक शास्त्रीय मर्यादा के भीतर किया जाता है, जो पारिवारिक जीवन के उद्देश्य और धार्मिक कर्तव्यों से मेल खाता है। यदि काम केवल शारीरिक संतुष्टि के लिए किया जाए, तो यह धर्म से बाहर चला जाता है और उसे दुरुपयोग माना जाता है।
सेक्स का उद्देश्य: भोग या आध्यात्मिक उद्देश्य?
आधुनिक समाज में, सेक्स को सामान्य रूप से केवल भोग के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारतीय दर्शन में इसे एक आध्यात्मिक कृत्य भी माना जाता है। सेक्स का वास्तविक उद्देश्य केवल भोग नहीं है, बल्कि वह आध्यात्मिक समृद्धि, संपूर्णता, और सृष्टि के साथ सामंजस्य का हिस्सा होना चाहिए।
विवाह के बाद जब व्यक्ति काम करता है, तो उसका उद्देश्य न केवल शारीरिक संतुष्टि होता है, बल्कि यह आत्मसाक्षात्कार की ओर एक कदम बढ़ने की प्रक्रिया बन जाता है। भारतीय संस्कृति में, सेक्स को एक पवित्र कृत्य के रूप में देखा जाता है, जो जीवन के उद्देश्यपूर्ण विकास और आध्यात्मिक उन्नति की ओर मार्गदर्शित करता है।
यह वह स्थान है, जहां धर्म, समाज, और आध्यात्मिकता का संगम होता है। जब काम को इस शास्त्रीय मर्यादा में किया जाता है, तो वह एक आध्यात्मिक साधना बन जाता है, जो जीवन के उच्चतम उद्देश्यों की ओर मार्गदर्शन करता है।
समय के साथ काम की विकृत दिशा: वर्तमान परिप्रेक्ष्य
काम एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जिसे भारतीय दर्शन में संयमित और उद्देश्यपूर्ण रूप में अपनाने की बात की जाती है। लेकिन समय के साथ, काम की दिशा में एक विकृति देखने को मिली है, खासकर आधुनिक समाज में। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काम को केवल भोग के रूप में देखा जाने लगा है, जिससे इसका शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक प्रभाव बहुत गंभीर हो गया है।
किशोरावस्था में काम की जागृति और उसके दुष्प्रभाव
किशोरावस्था वह समय होता है जब शारीरिक बदलाव आते हैं, और काम की इच्छा एक स्वाभाविक रूप से जागृत होती है। इस अवस्था में काम के प्रति आकर्षण को समझना और नियंत्रित करना एक बड़ी चुनौती बन जाता है। लेकिन वर्तमान समाज में किशोरों को काम के प्रति विकृत मानसिकता और अधिक उत्तेजना का सामना करना पड़ता है।
आज के युग में, किशोरावस्था में काम की जागृति के साथ-साथ मनोरंजन और भोग की संस्कृति को भी बढ़ावा मिला है, जो किशोरों को भटकाव और मानसिक असंतुलन का शिकार बना रहा है। हस्तमैथुन, अत्यधिक पोर्नोग्राफी का सेवन, और अनैतिक शारीरिक संबंधों की दिशा में बढ़ते कदम किशोरों को मानसिक और शारीरिक दृष्टि से बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इनका प्रभाव केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है, जो आत्म-संयम और आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ने के बजाय एक नकारात्मक दिशा में व्यक्ति को ले जाता है।
सोशल मीडिया, पोर्न और मानसिक स्थिति
आजकल के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया और पोर्नोग्राफी की व्यापकता ने काम की विकृति को और बढ़ावा दिया है। सोशल मीडिया पर, जहां एक ओर सकारात्मक संवाद होता है, वहीं दूसरी ओर यौनिक उत्तेजनाओं और अनावश्यक दृश्यावलियों को भी बढ़ावा मिलता है। किशोर और युवा वर्ग इन प्लेटफार्मों पर मानसिक उत्तेजनाओं के लिए आर्कषित हो जाते हैं, जो काम के प्रति एक गलत दृष्टिकोण उत्पन्न करता है।
पोर्न का सेवन करने से व्यक्ति के मन में शारीरिक इच्छाओं का अत्यधिक और अस्वस्थ रूप विकसित होता है, जिससे उसकी मानसिक स्थिति अस्थिर हो जाती है। पोर्न का निरंतर सेवन मानसिक स्वास्थ्य को खतरे में डालता है और व्यक्ति को वास्तविक संबंधों में संतोष और जुड़ाव से दूर कर देता है। इसके परिणामस्वरूप, व्यक्तित्व में असंतुलन, आत्म-संयम की कमी, और भावनात्मक रूप से निर्भरता जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
इसके अलावा, सोशल मीडिया पर दिखाए जाने वाले असली जीवन से परे उत्तेजक चित्र और सेक्सुअल कंटेंट युवाओं को भटकाव की ओर ले जाते हैं, जहां शारीरिक इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती और यह सोच किसी भी रूप में स्वास्थ्यपूर्ण और आध्यात्मिक नहीं होती।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, यह सब काम की अस्वस्थ दिशा का हिस्सा बन जाता है, जहां विनियोग और आध्यात्मिक उद्देश्य की कोई जगह नहीं होती। काम का यह विकृत रूप समाज, परिवार और व्यक्ति के लिए हानिकारक होता है और जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटकाने वाला साबित हो सकता है।
काम और आध्यात्मिकता: शिवत्व की प्राप्ति
काम और आध्यात्मिकता के बीच का संबंध, भारतीय दर्शन में एक गहरे और परिष्कृत तरीके से समझाया गया है। काम को एक स्वाभाविक प्रवृत्ति और शक्ति के रूप में देखा जाता है, जिसे यदि सही दिशा में उपयोग किया जाए, तो यह आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग बन सकता है। भारतीय दर्शन में, काम केवल एक भौतिक आवश्यकता नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक साधना है, जो मनुष्य को शिवत्व और मोक्ष की ओर अग्रसर कर सकती है।
काम और मोक्ष का संबंध
मोक्ष का उद्देश्य है आत्मा का अंतिम मुक्ति और ब्रह्म के साथ एकात्मता प्राप्त करना। लेकिन भारतीय सोच के अनुसार, यह केवल आध्यात्मिक साधनाओं से ही नहीं, बल्कि सभी जीवन की प्रवृत्तियों, जैसे काम, को सही दिशा में लगाने से संभव है। काम को यदि सही तरीके से नियंत्रित किया जाए, तो यह आत्म-साक्षात्कार की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।
काम और मोक्ष के बीच का संबंध यह है कि काम केवल एक भौतिक या शारीरिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक साधना बन सकता है, जब इसे संयम, मर्यादा, और आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ किया जाए। भारतीय योगियों और संतों का यह मानना था कि काम की ऊर्जा, जब सही दिशा में उपयोग की जाती है, तो यह आध्यात्मिक जागरूकता और आत्मिक संतुलन की ओर अग्रसर होती है, और अंततः व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति में सहायता मिलती है।
“शिवोऽहम्” की अवस्था और काम की भूमिका
“शिवोऽहम्” का अर्थ है, “मैं शिव हूँ”। यह अवस्था आत्म-ज्ञान की उच्चतम अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक पहचान को समझता है और वह ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है। इस अवस्था तक पहुँचने के लिए आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ काम की ऊर्जा को भी संयमित और नियंत्रण के तहत उपयोग करना आवश्यक है।
काम की ऊर्जा को जब व्यक्ति अपने भीतर सहेजकर आध्यात्मिक साधना में उपयोग करता है, तो वह अपनी आत्मा के गहरे स्तर पर पहुंचने में सक्षम होता है। जब व्यक्ति काम को न केवल भौतिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी समझता है, तब वह “शिवोऽहम्” की अवस्था में प्रवेश करता है, जहां वह यह अनुभव करता है कि उसका अस्तित्व शिव के साथ एक है।
काम की भूमिका यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यह ऊर्जा, यदि सही दिशा में मोड़ दी जाए, तो यह आत्मा के परम उद्देश्य की ओर मार्गदर्शन करती है। इस संदर्भ में, काम न केवल शारीरिक संतुष्टि का विषय है, बल्कि यह आध्यात्मिक साधना का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाता है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।
निष्कर्ष: काम – एक शक्ति या पतन का कारण?
Sexual Urge and Spiritual Growth काम का विश्लेषण भारतीय दर्शन में बहुत गहरे और विविध दृष्टिकोण से किया गया है। यह एक स्वाभाविक शक्ति है, जो यदि सही दिशा में उपयोग की जाए, तो यह आध्यात्मिक विकास और आत्मविकास का मार्ग बन सकता है। वहीं, यदि इसका उपयोग बिना नियंत्रण और संयम के किया जाता है, तो यह पतित जीवन और पतन का कारण बन सकता है। इस प्रकार, काम को केवल एक शारीरिक इच्छा या भोग की साधना नहीं समझा जा सकता, बल्कि यह जीवन के उच्चतम उद्देश्य की ओर एक शक्ति भी हो सकती है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर मार्गदर्शन करती है।
काम के संतुलन में विवेक की भूमिका
काम का संतुलन बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण है। जीवन में हर चीज़ का अपना स्थान और उद्देश्य होता है, और काम भी एक ऐसी शक्ति है, जिसे विवेक के साथ नियंत्रित किया जाना चाहिए। विवेक का अर्थ है वह आंतरिक समझ और ज्ञान, जो व्यक्ति को यह सिखाता है कि कब और किस प्रकार काम की इच्छा को संतुष्ट करना उचित है, और कब उसे नियंत्रित करना आवश्यक है।
आज के भोगवादी समाज में, जहां काम की इच्छा को बिना किसी संयम के मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहाँ विवेक की कमी एक प्रमुख कारण बन जाती है। विवेकहीनता के कारण काम का विकृति रूप प्रकट होता है, जो व्यक्ति की मानसिक स्थिति और जीवन के उद्देश्य को भटकाव की ओर ले जाता है। इस संदर्भ में, विवेक ही वह मार्गदर्शक तत्व है, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक उद्देश्य के साथ काम की इच्छा को संतुष्ट करने की क्षमता प्रदान करता है।
आत्मविकास और मुक्ति की दिशा
काम का सही उपयोग आत्मविकास और मुक्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। जब व्यक्ति अपने काम को न केवल शारीरिक संतुष्टि का साधन समझता है, बल्कि इसे एक आध्यात्मिक साधना के रूप में अपनाता है, तब वह जीवन के उच्चतम उद्देश्य की ओर बढ़ता है। आत्मविकास की प्रक्रिया में काम का संयमित उपयोग आवश्यक होता है, क्योंकि यह आध्यात्मिक जागरूकता और नैतिक समझ को बढ़ाता है।
इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो काम केवल एक इच्छा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक सिख और आध्यात्मिक साधना का हिस्सा है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। यदि काम को विवेकपूर्ण और मर्यादित रूप में किया जाए, तो यह न केवल आत्मविकास का माध्यम बन सकता है, बल्कि यह मुक्ति की दिशा में भी एक कदम साबित हो सकता है।
निष्कर्षतः, काम एक शक्ति भी हो सकता है और पतन का कारण भी, यह सब इस पर निर्भर करता है कि इसे किस दृष्टिकोण से और किस नियंत्रण के साथ अपनाया जाता है। विवेक और संयम के साथ काम का उपयोग आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में एक सशक्त साधन बन सकता है, जो व्यक्ति को उसकी आध्यात्मिक यात्रा में मदद करता है और उसे मुक्ति की ओर मार्गदर्शित करता है।
अंतिम संदेश
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