वेदांग, वाग्मी और शौक चर्राना क्या है?

Shauk Charrana Kya Hai? कभी आपने महसूस किया है कि अचानक कोई शौक हमारे भीतर इतनी तेजी से जाग उठता है कि हम बिना सोचे-समझे उसी में लग जाते हैं, जैसे बरसों का काम एक झटके में करने की कोशिश करना। कभी पेड़ लगाने का जुनून, कभी ग्रंथ खरीदने की इच्छा, तो कभी मातृभाषा को बचाने की कसक — यही है शौक चर्राना। ये शौक साधारण भी हो सकते हैं और असाधारण भी, लेकिन जब ये चर्राते हैं तो इंसान को नई दिशा में सोचने पर मजबूर कर देते हैं।

आज हम इस लेख में समझेंगे कि शौक चर्राना क्यों होता है, इसके उदाहरण क्या हैं और यह जीवन, शिक्षा और संस्कृति से कैसे जुड़ता है। लेकिन इससे भी पहले वेदांग और वाग्मी के संदर्भ में चर्चा आरंभ करते हैं; तो करते हैं श्री गणेश इस विषय का – नमस्ते!
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मैं Aviral Banshiwal, आपका दिल से स्वागत करता हूँ। 🟢🙏🏻🟢

वेदांग संस्कृत विषय और परीक्षा प्रणाली

वेदांग संस्कृत विषय से स्नातक के तृतीय वर्ष की कक्षा में एक महत्वपूर्ण विषय पढ़ाया जाता है – “संस्कृत वाङ्मय का इतिहास”। आजकल की परीक्षा-पद्धति को देखते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह काफी हद तक रटने-आधारित (rote learning) प्रणाली बन चुकी है। विद्यार्थियों की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वे कितना याद कर सकते हैं, और मजबूरी में उन्हें परीक्षा पास करने के लिए बहुत-सा पाठ रटना पड़ता है।

वेदांगों का महत्व

वेदांगों पर आधारित प्रश्न विशेष रूप से परीक्षा में बार-बार पूछे जाते हैं। इनमें से सबसे सामान्य प्रश्न है – “वेदांगों के नाम और उनका महत्व बताइए।” यह प्रश्न कठिन इसलिए लगता है क्योंकि विद्यार्थियों को आमतौर पर व्याकरण और ज्योतिष तो याद रह जाते हैं, कभी-कभी छन्द भी याद आ जाता है, लेकिन शेष तीन वेदांग अक्सर भूल जाते हैं। इस समस्या को सरल बनाने के लिए एक परंपरागत सूत्र याद रखा जाता है –

  • छन्द को वेदों का पैर कहा गया है,
  • कल्प को हाथ,
  • ज्योतिष को नेत्र,
  • निरुक्त को कान,
  • शिक्षा को नाक,
  • और व्याकरण को मुख कहा गया है।

वेद के छह अंग

इस प्रकार वेद को शरीर के छह अंगों में बाँटकर समझाया गया है। यही कारण है कि किसी भी परीक्षा में यदि वेदांगों पर प्रश्न आता है तो लगभग हर विद्यार्थी उत्तर में यही पंक्ति लिख देता है –

“छन्द को वेदों का पैर, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक और व्याकरण को मुख कहा गया है।”

अब सवाल यह है कि आखिर वेदों को इन छह अंगों में विभाजित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका पहला कारण है कि इस पद्धति से ज्ञान को विशेषीकृत (Specialized) रूप में व्यवस्थित किया जा सका। दूसरा कारण यह है कि इससे यह समझना आसान हो गया कि विद्यार्थी या साधक किस अंग पर अधिक पकड़ रखते हैं और किस पर कम। अर्थात्, वेदों के अध्ययन को व्यावहारिक और व्यवस्थित बनाने का यह एक सशक्त साधन था।

शिक्षा वेदांग

वेद के मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण की विधि “शिक्षा” नामक वेदांग में बताई गई है। यह वेदांग का पहला और सबसे मूलभूत भाग है जिसमें स्वर, वर्ण, मात्रा और उच्चारण की बारीकियाँ सिखाई जाती हैं।इतिहास गवाह है कि जब विदेशी आक्रमणकारी और धर्मांतरण के उद्देश्य से आए हमलावर वेदों और ग्रंथों को जला रहे थे, तब भी वेद अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित रहे। इसका प्रमुख कारण यही था कि “शिक्षा वेदांग” के माध्यम से शब्दशः और शुद्ध उच्चारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परंपरा से पहुँचता रहा।

चाहे कितनी भी प्रताड़नाएँ और विनाश हुए हों, वेदों का मूल ज्ञान मिटाया नहीं जा सका क्योंकि हर वैदिक छात्र उन्हें पूर्णतः कंठस्थ (memorize) करता था। यही कारण है कि आज भी वेद अपने प्राचीन स्वरूप में उपलब्ध हैं।

कल्प वेदांग

किस वैदिक कर्मकाण्ड में कौन-से मन्त्र का प्रयोग करना है, यह “कल्प” वेदांग से जाना जाता है। कल्प की तीन मुख्य शाखाएँ हैं –

  • श्रौतसूत्र – यज्ञों और बड़े वैदिक अनुष्ठानों के नियम
  • गृह्यसूत्र – गृहस्थ जीवन से जुड़े संस्कार और अनुष्ठान
  • धर्मसूत्र – सामाजिक और धार्मिक आचार-संहिता

कल्प का शाब्दिक अर्थ है “भाग या हिस्सा”। अर्थात्, कौन-सा मन्त्र किस हिस्से में और किस संदर्भ में प्रयोग होगा, यह कल्प वेदांग सुनिश्चित करता है। इस प्रकार, वैदिक ग्रंथों की शुद्धता और क्रमबद्धता बनाए रखने में कल्प वेदांग की महत्वपूर्ण भूमिका है।

व्याकरण वेदांग

वेद का सबसे प्रमुख और आधारभूत अंग माना गया है – व्याकरण। इसके माध्यम से शब्दों के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों की स्थिति समझी जाती है। संस्कृत भाषा की शुद्धता और शास्त्रीयता की रक्षा व्याकरण वेदांग से ही संभव हुई। इसके पाँच मुख्य प्रयोजन बताए गए हैं –

  1. रक्षा – वेदों की शुद्धता की रक्षा करना
  2. ऊह – शब्दों में आवश्यक परिवर्तन करना
  3. आगम – अतिरिक्त अक्षरों या ध्वनियों का समावेश
  4. लघु – उच्चारण को सरल बनाना
  5. असंदेह – किसी भी प्रकार का भ्रम न रहने देना

निरुक्त वेदांग

वेदों में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ और व्याख्या “निरुक्त” वेदांग में दी जाती है। यह भाषा की गहराई तक जाकर बताता है कि किसी शब्द का प्रयोग किन-किन अर्थों में किया गया है। यदि आधुनिक शिक्षा प्रणाली से तुलना करें तो कहा जा सकता है कि “लिंग्विस्टिक्स” (Linguistics) के अंतर्गत शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त – तीनों का संयोजन दिखाई देता है।

ज्योतिष वेदांग

यज्ञ और अन्य वैदिक अनुष्ठानों के लिए सही समय (मुहूर्त) का ज्ञान आवश्यक होता है। इसीलिए ज्योतिष को वेद का अंग बनाया गया। वेदांग ज्योतिष एक प्राचीन ग्रंथ है जिसे लगध मुनि द्वारा लिखा गया माना जाता है। हालाँकि इसके रचना काल को लेकर मतभेद हैं, लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह विश्व का सबसे प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ है। यही ग्रंथ आगे चलकर भारतीय ज्योतिष शास्त्र का आधार बना।

ज्योतिष वेदांग के शास्त्रीय प्रमाण

आर्चज्योतिषम् के ३६वें पद्य तथा याजुषज्योतिषम् के तीसरे पद्य में कहा गया है –

वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्॥

अर्थात्, वेद यज्ञ के लिए ही प्रवृत्त हैं और यज्ञों का विधान समयानुसार निर्धारित है। इसलिए जो व्यक्ति ज्योतिष शास्त्र को जानता है, वही वास्तव में यज्ञों को जानने वाला कहलाता है।

वेदों के ज्योतिष शास्त्र

प्राचीनकाल में प्रत्येक वेद का अपना अलग ज्योतिष शास्त्र था। आज सामवेद का ज्योतिष शास्त्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन शेष तीनों वेदों के ज्योतिष शास्त्र अब भी विद्यमान हैं –

  • ऋग्वेद का ज्योतिष शास्त्र – आर्चज्योतिषम् (36 पद्य)
  • यजुर्वेद का ज्योतिष शास्त्र – याजुषज्योतिषम् (44 पद्य)
  • अथर्ववेद का ज्योतिष शास्त्र – आथर्वणज्योतिषम् (162 पद्य)

ऋग्वेद और यजुर्वेद के ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता लगध मुनि माने जाते हैं। अथर्ववेद ज्योतिष शास्त्र के प्रणेता का नाम अज्ञात है। ज्योतिष शास्त्र को त्रिस्कन्ध भी कहा जाता है क्योंकि इसके तीन मुख्य खंड हैं –

  1. सिद्धान्त
  2. संहिता
  3. होरा

इसीलिए एक श्लोक में कहा गया है –

सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्।
वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम्॥

गणित का महत्व

वेदांग ज्योतिष मूलतः सिद्धान्त ज्योतिष है, जिसमें सूर्य और चन्द्र की गति का गणितीय अध्ययन है। गणित के महत्व को याजुषज्योतिषम् ४ में इस प्रकार बताया गया है –

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥

अर्थ: जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि सर्वोच्च स्थान पर है, उसी प्रकार सभी वेदांगों में गणित का स्थान सर्वोच्च है। इससे स्पष्ट है कि उस समय गणित और ज्योतिष समानार्थी शब्द के रूप में प्रयुक्त होते थे।

छन्द वेदांग

अंत में आता है छन्द वेदांग। प्रत्येक वैदिक मन्त्र का एक निश्चित छन्द होता है – जिसमें अक्षरों और मात्राओं की सटीक संख्या निर्धारित होती है। यही कारण है कि वैदिक मन्त्रों में किसी भी प्रकार की हेरफेर लगभग असंभव हो जाती है। यदि आधुनिक कविता से तुलना करें तो आजकल की हिंदी कविताएँ प्रायः बेतुकांत या मुक्त छन्द में होती हैं, जिन्हें लिखना अपेक्षाकृत आसान है।
लेकिन वैदिक छन्दों में रचना करना अत्यंत कठिन है।

उदाहरण के लिए –

  • अनुष्टुप छन्द
  • गायत्री छन्द
  • पञ्चचामर छन्द (इसी छन्द में रचित है शिव तांडव स्तोत्र)

इसी प्रकार तुलसीदास, कबीर, रैदास आदि संत कवियों ने भी दोहा और चौपाई जैसे छन्दों में रचनाएँ दीं, जो आज भी अद्वितीय मानी जाती हैं।

वेद अपरिवर्तनीय है।

वेद को अपौरुषेय कहा गया है, अर्थात जिसकी रचना किसी पुरुष ने नहीं की । इसलिए इस ज्ञानराशि का एक-एक अक्षर अपरिवर्तनीय है। वेद (ऋक्, यजु, साम और अथर्व में विभक्त 4 वेद) के मूल पाठ यथावत् सुरक्षित रहें, उनमें कभी कोई मिलावट न हो सके और न ही कोई अंश लुप्त हो जाए, इसके लिए बहुत प्रारम्भ से ही ऋषियों ने इसकी पाठ-विधि का निर्धारण किया। इनमें 3 प्रकृतिपाठ और 8 विकृतिपाठ हैं।

संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ ये तीन प्रकृतिपाठ हैं और 1. जटा, 2. माला, 3. शिखा, 4. रेखा, 5. ध्वज, 6. दण्ड, 7. रथ और 8. घन— ये 8 विकृतिपाठ हैं। इन विविध पाठों के द्वारा वेदमंत्रों को नाना प्रकार से कंठस्थ करने के कारण ही वेद सृष्टि के प्रारम्भ से आजतक यथावत सुरक्षित हैं। उनमें एक अक्षर तो क्या, एक मात्रा का भी परिवर्तन नहीं हुआ है। सम्पूर्ण विश्व में ऐसी कोई उच्चारण-परम्परा ढूँढने से भी प्राप्त नहीं होती।

‘मधुशिक्षा’ नामक ग्रन्थ के अनुसार सर्वप्रथम श्रीभगवान् ही ने वेदसंहिता का दर्शन किया तथा उन्होंने इसका उपदेश दिया। इसी प्रकार पदपाठ के आद्य द्रष्टा रावण और क्रमपाठ के बाभ्रव्य ऋषि हैं। रावण कृष्णयजुर्वेद के आद्य भाष्यकार तो थे ही साथ में वेदों के सस्वर पाठ के आद्य प्रवर्तन ऋषि भी थे।

भगवान् संहितां प्राह पदपाठं तु रावणः। बाभ्रव्यर्षि क्रमं प्राह जटां व्याडिरवोचत्॥
“ये रावण कश्मीर के गोनन्द वंशी नरेश हैं”

प्रत्येक शाखा के पृथक् पदपाठ के ऋषि भी उल्लिखित हैं, यथा : ऋग्वेद की शाकलशाखा के शाकल्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के आत्रेय तथा सामवेद की कौथुमशाखा के गार्ग्य ऋषि पदपाठ के द्रष्टा हैं।

वाग्मी का अर्थ क्या है?

विश्व की सबसे प्राचीन रचना होने के बावजूद वेद आज भी अपने मूल स्वरूप में सुरक्षित हैं। इतनी लंबी अवधि तक इस विश्व धरोहर को बचाकर रखने का श्रेय उन विद्वानों को जाता है, जिन्होंने जीवनभर वेदों और वेदांगों के संरक्षण में समय लगाया। दुर्भाग्यवश, ऐसे महापुरुषों को प्रशंसा के बजाय आलोचना और अपमान भी सहना पड़ा।

वाग्मी का अर्थ है – वह व्यक्ति जिसने सभी छः वेदांगों का गहन अध्ययन किया हो और साथ ही अपने से छोटे शिष्यों को भी वेदांगों का ज्ञान सिखाता हो। साथ ही, वाग्मी का मतलब यह भी है कि वह व्यक्ति शास्त्रार्थ (तर्क-वितर्क) में निपुण और वक्तृत्व-कला (oratory) में दक्ष हो। इसलिए वाग्मी को केवल विद्वान ही नहीं, बल्कि ज्ञान और वाणी का आचार्य भी माना जाता है।

वाग्मी की दिनचर्या

वाग्मी बनने की साधना आसान नहीं होती। इसके लिए विद्यार्थियों को गुरुकुल में दीर्घकाल तक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। गुरुकुल सामान्य विद्यालयों से भिन्न होते हैं –

  • शिष्य यहाँ अपने परिवार से दूर रहते हैं।
  • वे अपने गुरु को परम पिता मानते हैं और उनका आदेश ही सर्वोच्च होता है।
  • छुट्टियाँ या घर लौटने का प्रचलन नहीं होता; शिष्य वर्षों तक गुरुकुल में रहकर भिक्षाटन द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं।

वाग्मी की दिनचर्या ब्रह्म मुहूर्त (सुबह लगभग 3:30–4:00 बजे) से आरंभ होती है। प्रतिदिन प्रातः स्नान अनिवार्य होता है। आज के दृष्टिकोण से देखें तो इतनी सुबह उठकर नित्यकर्म करना और ठंडे पानी से स्नान करना कठिन प्रतीत होता है, किंतु वाग्मी बनने के मार्ग में यह केवल प्रारम्भिक अनुशासन है। वास्तव में वाग्मी बनने का अर्थ केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि संन्यास और कठोर तपस्या भी है। यदि कोई व्यक्ति वाग्मी होने के साथ-साथ संन्यासी भी हो, तो यह संयोजन उसे शंकराचार्य जैसे जीवन-पथ की ओर ले जाता है। हालाँकि, यह आवश्यक नहीं है कि हर वाग्मी और संन्यासी शंकराचार्य ही बनें, परंतु यह निश्चित है कि ऐसे व्यक्ति का जीवन समाज के लिए आदर्श बन जाता है।

शौक चर्राना क्या होता है?

कभी कभी “शौक चर्राता” है अर्थात्‌ एक ऐसे शौक का अचानक जागना होता है जिसके बारे में हमें जानकारी तो रत्ती भर भी नहीं होती लेकिन अचानक वो काम करना होता है। ऐसे काम जो बरसों के अभ्यास से सीखे जाते हैं उनको पलक झपकते बिलकुल पेशेवर स्तर पर करना होता है। ऐसा शौक अगर जागे तो उसे शौक चर्राना कहा जाता है। जैसे ये लेख पढ़कर मेरे जैसे लोग वाग्मी बनने के बारे में सोचेंगे और कई लोग बहुत सारे ग्रंथ कल ही खरीद लाएंगे; कई तो सुबह चार बजे उठना प्रारम्भ कर देंगे लेकिन कब तक ये नहीं पता?

अब अगर स्टैम्प या सिक्के जमा करने का शौक हो या फिर कई किताबें इकठ्ठा कर लेने का शौक हो तो शौक का चर्राना फिर भी चलता है। कई चीजें ऐसी होती हैं जिनका शौक चर्राये तो उस विधा की थोड़ी बहुत जानकारी रखने वालों को भी बड़ा अजीब लगता है। जैसे एक बड़ा अच्छा सा शौक हो सकता है कि पेड़ लगाने का हो! बहुत अच्छा शौक है जो सभी को होना चाहिए। पर्यावरण का भला होता है और इससे हम अगली पीढ़ी के लिए कुछ छोड़कर जाते हैं। लेकिन, किन्तु, परन्तु, अगर बिना कुछ किये ही अचानक ये शौक चर्राये तो क्या होगा?

जिन्हें अचानक ये शौक चर्राता है वो अजीब हरकतें करने लगते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, सबसे पहले तो मुझे यही समझ में नहीं आया था कि जैसे पालतू पशु होते हैं वैसे ही पौधे भी पालतू होते हैं। जैसे हर पशु को पाला नहीं जा सकता वैसे ही हर पौधा भी पालतू नहीं होता लेकिन मुझे इस बात का ज्ञान आगे चलकर हुआ। सरसों, फूलगोभी, पत्तागोभी से लेकर मकई तक कई पौधे मनुष्यों ने सदियों के अभ्यास से पालतू बना लिए हैं। अगर हमको पेड़ लगाने ही हैं तो आम, जामुन, कटहल जैसे कई फलदार पौधे हैं। छायादार या लकड़ी के लिए लगाए जाने वाले पौधे भी हैं। सजावटी पौधे भी लगाए जा सकते हैं।

अंदाजा न हो तो सोचिये कि दो ही दशक पहले जब बेर और बेल जैसे फल उतने बिकते नहीं थे तब वो कैसे होते थे? सहजन का पौधा कैसे होता था? बेर में बिलकुल छोटे-छोटे फल होते थे। अभी जैसे बड़े बेर नहीं होते थे। बेल का फल टेढ़ा मेढ़ा भी हो सकता था, अभी जैसा गोल सुगढ़ बड़ा सा बेल नहीं होता था। सहजन बारहों महीने नहीं होती थी, उसके पेड़ पर एक कीड़ा भी रहता था, जिसे छूते ही खुजली होती। इन्हें तो भारतीय लोगों ने अभी हाल में ही— ढंग से पालतू बनाया है।

पेड़ लगाने का शौक चर्राना

Shauk Charrana Kya Hai? ये अब इस उदाहरण से ज़रूर समझ आएगा कि कभी-कभी हमें पेड़ लगाने का शौक चर्राता है और हम अक्सर ऐसे पौधों को लगाने की कोशिश करते हैं जो अभी पूरी तरह पालतू नहीं हुए हैं। ऐसे पेड़ों में सबसे प्रमुख हैं चन्दन और रुद्राक्ष। ये पौधे हम बेचारे खरीदकर लाते हैं और लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि चन्दन करीब करीब परजीवी पौधा होता है जो जंगल के बाहर लगाने की कोशिश करने पर अकेला जीता ही नहीं है। ऊपर से पेड़ लगाने का बीस साल का अनुभव न हो तो हम बच्चे हैं।

इसलिए भी ये पेड़ हमसे लगता ही नहीं है अर्थात्‌ पेड़ दीर्घायु नहीं होता बल्कि लगाने के दो-चार दिन बाद ही सूख जाता है लेकिन यदि हम किसी अभ्यस्त व्यक्ति से पूछेंगे तो पता चलेगा कि चन्दन के पास ही एक नीम का पेड़ और एक कढ़ी पत्ते का पेड़ लगा देने से हमारा काम बन सकता है क्योंकि दो चार वर्ष बीतने के बाद नीम या कढ़ी पत्ते के पेड़ की जड़ें चन्दन की जड़ों से जा मिलेंगी। फिर चन्दन का पेड़ उनकी जड़ों से नाइट्रोजन ले सकेगा और संभव है कि वो बच जाये।

करीब-करीब ऐसा ही रुद्राक्ष के पेड़ के साथ भी होता है। ये इसलिए याद आया क्योंकि मातृभाषा दिवस पर अचानक हमको याद आएगा कि आने वाली पीढ़ी यानी अपने बच्चों को हम अपनी मातृभाषा नहीं सिखा रहे हैं और ये कोई अचम्भे की बात नहीं है क्योंकि ये भी काफी कुछ पेड़ लगाने का शौक चर्राने जैसा ही है। जैसे हम अपने घर संतरे, सेब या कभी-कभी काजू का पौधा लगा लेने की कोशिश करते हैं फिर काजू सड़ा हुआ सा फलता है और संतरा कुछ-कुछ नीम्बू जैसा। 😄😄😄

परिवेश के बिना हाल

अपने स्वाभाविक परिवेश के बिना जो दशा संतरे के पेड़ की होती है ठीक वैसी ही दशा मातृभाषा की भी होती है। जैसे संतरा पिद्दी सा फलता है, कुछ वैसा ही भाषा का भी होता है। भारत के बाहर जन्मे बालक का बोलना या सीखना शुरू करने वाले बच्चों की हिंदी में जैसे “डोगूना लगान डेना” पड़ता है, वैसा ही दूसरी भाषाओँ में भी होना स्वाभाविक है।

पेड़ सूख जाए या पनपे नहीं तो अमूमन ये सोचा जाता है कि मिट्टी ख़राब होगी या फिर पानी-खाद की मात्रा में घटा-बढ़ी हुई होगी अन्यथा मौसम की गड़बड़ी होगी। बिलकुल वैसे ही भाषा के संदर्भ में भी याद रखना होता है कि दोषारोपण बीज (बीज=मनुष्य जाति का वंश या पीढ़ी) पर नहीं करना चाहिए क्योंकि वो पीढ़ी बिलकुल बीज की तरह उतनी ही संभावनाओं से युक्त है/थी लेकिन हमने उचित परिवेश नहीं दिया ये हमारी गलती है।

निष्कर्ष

वास्तव में, हम जो शिक्षा अपने बच्चों को देते हैं उसका मतलब सिर्फ धन कमाना ही होता है। सम्पूर्ण शिक्षा अर्थ के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए ही होती है। समय के साथ समाज-संस्कार-वातावरण आदि सबकुछ परिवर्तित हो गया है और होता भी रहेगा। ज्यादा नहीं केवल 70 वर्ष पहले यानि यदि हम लगभग 40 वर्ष के हैं तो हमारे दादा जी के ज़माने में धन का मह्त्व नहीं था। उस समय किसी पर गन्ना तो किसी पर बैल तो किसी पर कोल्हू होता था और संयुक्त रूप से मिठाई बनती थी जो सभी में वितरित होती थी। उस समय बालक क्या अपना और क्या पराया सब बराबर होता था।

लेकिन आजकल सब रेडीमेड उपलब्ध है बस पैसा होना चाहिए किन्तु उस समाज में समय की माँग वही थी इसलिए पहले वचन का मोल था पर धन का नहीं। पहले ब्लाउज कोहनी से नीचे होते थे तो अब कंधे तक, आगे चलकर कुछ भी ना रहे ये भी कहना अनुचित नहीं होगा। अब शिक्षा हमने बच्चों को आधुनिक दी तो बच्चे बर्ताव भी आधुनिक ही करेंगे चूँकि पुराने समय के बुजुर्ग भी मौजूद होते हैं जो अपेक्षा करते हैं कि बालक संस्कारी होगा लेकिन अब समय की माँग आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना और उनके बारे में जानकारी रखने की है।

इसलिए यदि ये भी अगर ना हो तो भी नुकसान आधुनिक पीढ़ी का ही होगा। उदाहरणतः बहुतायत बुजुर्गों को टच मोबाइल चलाना ही नहीं आता और ये वर्तमान समय के अनुकूल नहीं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो पढ़े-गुने नहीं किन्तु कईयों ने अपने आप को समय के अनुरूप ढाला भी है। ऐसी दशा में बुजुर्ग और आधुनिक पीढ़ी के मध्य सामंज्य स्थापित करने का एक ही रास्ता है कि बुजुर्ग समय के अनुरूप अपने को ढालने की कोशिश करें नहीं तो बालकों से संस्कारी होने की अपेक्षा ना करें।

क्योंकि आधुनिक शिक्षा ओपन रिलेशनशिप के संस्कार को बढ़ावा देती है ना कि संयुक्त परिवार में रहने की विचारधारा को विकसित करती है। फ़िलहाल समय की मांग धन का मोल होने की है फिर चाहें वचन जाए ऐसी-तैसी में; अभी थोड़ा-बहुत बुजुर्गों की वज़ह से गाँव-देहातों में वचन के मायने हैं भी तो कुछ और वर्षों पश्चात्‌ रहा बचा भी समाप्त हो जाएगा। पूर्ण तो कोई भी समाज न था, न है और न आगे होगा कदाचित यही सत्य है।

अंतिम संदेश

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