क्षणभंगुर यश, क्षणभंगुर जीवन – और जीवन का असली प्रश्न।

Yash aur Jeevan ki Asliyat — जब हम जीवन को गहराई से देखने का प्रयास करते हैं, तो एक कठोर और निर्विवाद सत्य हमारे सामने खड़ा होता है — कि सब कुछ जो इस शरीर के साथ जुड़ा है, वह इसी शरीर के साथ समाप्त हो जाएगा। फिर चाहे वह यश हो, पद हो, धन हो या प्रियजन — सब कुछ यहीं रह जाएगा। मृत्यु की शांति में न कोई तालियाँ बजती हैं, न कोई पुरस्कार मिलता है, केवल एक प्रश्न गूंजता है — “तूने क्या किया?”

यह लेख उसी उत्तर की एक खोज है – जो केवल शब्दों का सहारा नहीं देगा, बल्कि आत्मा को सम्बल और दिशा प्रदान करेगा। यहाँ हम समझेंगे कि जब सब कुछ क्षणभंगुर है तो आख़िर सत्य क्या है। नमस्ते! Anything that makes you feel connected to me — hold on to it. मैं Laalit Baghel, आपका दिल से स्वागत करता हूँ 🟢🙏🏻🟢 

यश और पद की आभासी चमक: क्या यही जीवन का सार है?

जब कोई व्यक्ति जीवन की दौड़ में आगे निकलता है, ऊँचाई पर पहुँचता है, तो उसके चारों ओर तालियाँ बजती हैं, प्रशंसा की बौछार होती है, और उसे लगता है कि यही है “जीवन का चरम उद्देश्य” — यश, सम्मान और पद। लेकिन यहीं से वह सबसे बड़ा भ्रम शुरू होता है। क्योंकि जो तालियाँ आज बज रही हैं, वे कल किसी और के लिए बजेंगी। जो लोग सिर झुका कर सम्मान कर रहे हैं, वे किसी और के आगे भी झुकते हैं और वह कुर्सी जिस पर आप बैठते हैं, वह आपकी नहीं — समय की है।

“Yash aur Jeevan ki Asliyat” यही है — कि सब कुछ अस्थायी है।

जब तक शरीर है, तब तक यश है। जब शरीर चला गया, तब न पद बचा, न पहचान। इतिहास में हजारों नाम ऐसे हैं जो कभी समय के नायक थे — सम्राट अशोक, सिकंदर, नेपोलियन, चाणक्य, टैगोर, नेहरू — लेकिन क्या आज की पीढ़ी उन्हें याद करती है? और यदि करती भी है, तो सिर्फ पाठ्यपुस्तकों में। वास्तविक जीवन में उनका अस्तित्व धीरे-धीरे धुंधला हो गया है।

सम्मान की चमक और आत्मा की प्यास

हम बाहरी यश की लालसा में भीतर की भूख को भूल जाते हैं। पद और पुरस्कार तो बाहरी पहचान हैं, लेकिन आत्मा को किसी ट्रॉफी की आवश्यकता नहीं — उसे चाहिए शांति, सार्थकता और संतोष और यही सवाल बार-बार जीवन के हर मोड़ पर उभरता है:

“क्या मैं सच में जी रहा हूँ — या बस दिखा रहा हूँ कि मैं जी रहा हूँ?”

माया की इस आभासी दुनिया में फँसा मनुष्य

हम भूल जाते हैं कि यह जीवन एक नाटक है — और हम केवल किरदार हैं। मंच बदल जाएगा, परदे गिरेंगे, तालियाँ बंद हो जाएँगी, और अंत में बचेगा सिर्फ एक प्रश्न: “Yash aur Jeevan ki Asliyat kya thi?” क्या वह पद था जिसे मैंने पाया? या वह क्षण था जब मैंने किसी के आँसू पोंछे? क्या वह फोटो था अख़बार में? या वह चुपचाप किया गया परोपकार?

  • यश और पद शरीर तक सीमित हैं — आत्मा से नहीं जाते।
  • जितना ऊपर चढ़ेंगे, उतना अकेले हो जाएँगे।
  • समाज की स्मृति बहुत छोटी है — आज हम, कल कोई और।
  • असली जीवन वही है जो हमारे जाने के बाद भी किसी के भीतर जीवित रह जाए।

इसलिए यश यदि लक्ष्य बन गया, तो जीवन भ्रम बन जाएगा। लेकिन यदि सेवा, सत्य और सार्थकता लक्ष्य बने — तो यश एक स्वाभाविक परिणाम बनकर मिलेगा, और तब वह टिकेगा भी।

मृत्यु: जिस सच्चाई से हर कोई आँख चुरा रहा है

मृत्यु — एक ऐसा सत्य जो हर दिन हमारे चारों ओर घटित हो रहा है, फिर भी हम उससे सबसे ज़्यादा भागते हैं। हम योजना बनाते हैं आने वाले 10 वर्षों की, लेकिन यह मानकर कि हमारे पास वे 10 साल हैं ही। हर सांस जो हम ले रहे हैं, वह अंतिम नहीं हो सकती — ऐसा हमारा भ्रम है। लेकिन Yash aur Jeevan ki Asliyat को समझने का सबसे पहला द्वार ही मृत्यु है।

“दुनिया में लाखों का मेला जुड़ा, हँसा जब जब उड़ा तो अकेला उड़ा।”

यह एक पंक्ति नहीं, बल्कि जीवन का उद्घाटन है। हम जन्म से मृत्यु तक रिश्तों, यश, धन, और प्रेम की गठरी बाँधते हैं, लेकिन अंत में जाते हैं केवल अपने कर्मों के साथ — न परिवार, न पद, न प्रतिष्ठा साथ जाता है। इसलिए मृत्यु से डर नहीं, बल्कि सत्य से सामना आवश्यक है। हम मृत्यु का नाम लेते ही चुप हो जाते हैं, बात बदल लेते हैं, या टाल देते हैं। लेकिन यही चुप्पी हमें यथार्थ से दूर कर देती है। मृत्यु का विचार ही हमें आत्मा की दिशा में मोड़ता है।

जो मृत्यु को देखना सीख गया, वह जीना सीख गया और जो यह नहीं समझ पाया कि जीवन एक सीमित समय की किराये की यात्रा है — वह अपना सब कुछ यहीं पर स्थायी मानकर जीता है, और अंत में खाली रह जाता है।

कौन जाएगा साथ?

मृत्यु के क्षण में जो शांति देता है, वही जीवन का असली निवेश है। न बैंक बैलेंस साथ जाएगा, न बीमा पॉलिसी, न कार, न बंगला, न लाइक्स और न ही वो ग़लत तरीकों से कमाया गया “यश”। अगर कुछ साथ जाएगा, तो वह है — कर्मों का लेखा-जोखा और यही है “Yash aur Jeevan ki Asliyat” — कि जब देह ही नहीं जाती, तो देह से जुड़े हुए तमाम प्रतीकों की क्या औकात?

  • मृत्यु एक शत्रु नहीं, बल्कि जीवन का सबसे सच्चा साथी है।
  • जितना हम मृत्यु से भागते हैं, उतना हम जीवन से दूर होते हैं।
  • मृत्यु के विचार से ही जीवन में विनम्रता और विवेक आता है।
  • अगर मृत्यु के क्षण में कुछ रह जाएगा, तो केवल आत्मा और उसके कर्म।

“Yash aur Jeevan ki Asliyat” मृत्यु के बिना नहीं समझी जा सकती। क्योंकि जो जीवन को मृत्यु के प्रकाश में देखता है, वह दिखावे और भ्रम से ऊपर उठ जाता है। वह जीना शुरू करता है — सच में, सच के लिए।

“तूने क्या किया?” — जीवन का अंतिम और असहज प्रश्न

जब एक व्यक्ति मृत्यु के द्वार पर पहुँचता है, वहाँ कोई समाचार पत्र की कटिंग नहीं पूछता, न कोई पद और पुरस्कारों की सूची माँगता है। वहाँ केवल एक मौन प्रश्न गूंजता है — “तूने क्या किया?” यह प्रश्न जितना साधारण दिखता है, उतना ही भीतर से हिला देने वाला होता है और यदि यह प्रश्न पूछा जा रहा है, तो इसका अर्थ स्वयं में छिपा है — कि कुछ भी ऐसा नहीं किया जो आत्मा की गवाही बन सके।

इस प्रश्न के पीछे कोई ईश्वर की निंदा नहीं, कोई दंडात्मक चेतावनी नहीं — बल्कि एक गहरा आत्म-निरीक्षण छुपा है। जो लोग जीवन को सिर्फ सांसों की गिनती समझते हैं, उनके लिए यह प्रश्न एक आघात जैसा होता है। लेकिन जो Yash aur Jeevan ki Asliyat को समझ चुके होते हैं, उनके लिए यह एक आह्वान होता है — यह बताने का कि मैंने जीवन को न केवल जिया, बल्कि किसी के लिए कुछ किया भी।

हम में से अधिकांश लोग तात्कालिक लक्ष्य और सतही सफलताओं की ओर भागते हैं। जब तक तालियाँ बजती हैं, तब तक सब कुछ सार्थक लगता है। लेकिन जैसे ही जीवन की गति धीमी होती है, जैसे ही शरीर थकता है, और जैसे ही मृत्यु पास आती है — तब सारी सफलता खोखली प्रतीत होने लगती है। कोई “सीवी” नहीं बचता जो आत्मा के सामने पेश किया जा सके।

“तूने क्या किया?” का उत्तर सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें या संकल्प नहीं हो सकते। यह उत्तर तब ही आता है जब जीवन में हमने किसी और की आँखों से आँसू पोंछे हों, किसी को संबल दिया हो, किसी की पीड़ा बाँटी हो, और स्वयं की आत्मा को साक्षी बनाकर कोई काम किया हो।

कई बार लोग कहते हैं — “हमने तो किसी का बुरा नहीं किया” — लेकिन यही तो न्यूनतम है। प्रश्न यह नहीं है कि “क्या बुरा किया?”, प्रश्न यह है कि “क्या कुछ अच्छा भी किया?” क्या कोई ऐसा कर्म किया जो मृत्यु के बाद भी किसी के स्मरण में जीवित रहे? Yash aur Jeevan ki Asliyat का मूल्य इसी प्रश्न में केंद्रित है। पद और प्रतिष्ठा आत्मा की भाषा नहीं समझते। वहाँ केवल प्रेम, दया, सेवा, और सत्य बोलते हैं। यही चार चीज़ें उस प्रश्न का उत्तर बन सकती हैं — अन्य कोई नहीं।

आज का समाज और सफलता का नकली स्वरूप

आज की दुनिया चकाचौंध से भरी हुई है। यहां सफलता का अर्थ अधिकतर धन, प्रसिद्धि, लाइक्स और फॉलोअर्स से लगाया जाता है। एक व्यक्ति यदि अपने इंस्टाग्राम प्रोफाइल पर मुस्कुराता दिखाई दे रहा है, तो हम मान लेते हैं कि वह खुश है। यदि उसके पास कार, बंगला और ब्रांडेड कपड़े हैं, तो हम उसे सफल कहने लगते हैं। लेकिन क्या यही है Yash aur Jeevan ki Asliyat?

आज का समाज उस तमाशे की तरह बन गया है जहाँ हर कोई अभिनय कर रहा है — किसी और की तरह बनने की कोशिश में। यहाँ दिखावे की होड़ है, जिसमें भीतर का व्यक्ति खोता जा रहा है। पवित्रता को पुराने जमाने की चीज़ कह दिया गया है, और नैतिकता को मूर्खता। आज झूठ को “स्मार्टनेस”, और फरेब को “स्ट्रैटेजी” कहा जाता है।

सफलता के इस नकली स्वरूप में सबसे अधिक गिरावट देखी जा रही है रिश्तों में। जहाँ 10-10 वर्षों से चल रहे गलत संबंधों को “सच्चा प्रेम” कहा जा रहा है, और लोग बिना जिम्मेदारी के, केवल इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे के जीवन में आ-जा रहे हैं। बच्चे इसे “रिलेशनशिप गोल्स” समझ रहे हैं, और परिवार वाले इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं — क्योंकि अब सबका लक्ष्य है किसी भी कीमत पर ‘सक्सेसफुल’ बनना।

सच्चाई यह है कि समाज ने अब अच्छाई की परिभाषा बदल दी है। जो धोखे से अमीर बना है, वह “प्रेरणास्पद” माना जा रहा है। जो दिखावे में माहिर है, वह “लीडर” कहलाता है और जो सच्चाई से चलना चाहता है, वह या तो हारा हुआ माना जाता है, या फिर पिछड़ा और इसी बिंदु पर फिर से लौटता है वह प्रश्न — “Yash aur Jeevan ki Asliyat” आख़िर है क्या?

  1. क्या वह प्रसिद्ध चेहरा जो अंदर से अकेला है?
  2. क्या वह दौलत जो किसी का विश्वास खरीद नहीं सकती?
  3. या वह मनुष्य जो सरल है, लेकिन हर रात चैन की नींद सोता है?

आज हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या हम भी उसी नकली सफलता की परिभाषा को अपना चुके हैं, जिसे समाज ने प्रचारित किया है? क्या हमारे बच्चे उस नकली यश के पीछे भाग रहे हैं जिसमें आत्मा का कोई स्थान ही नहीं? यह समाज तब बदलेगा जब हम खुद अपने भीतर झांकेंगे — और अपने जीवन से दिखावे की परतें हटाकर असलियत को स्वीकारेंगे। क्योंकि Yash aur Jeevan ki Asliyat तब तक नहीं दिखेगी जब तक हम उसे देखने की ईमानदारी न रखें।

माया का मायाजाल और आत्मा का पतन

माया — एक ऐसा शब्द जो केवल आध्यात्मिक ग्रंथों में नहीं, हमारे रोज़मर्रा के जीवन में भी गूंजता है। लेकिन माया अब कोई अज्ञात शक्ति नहीं रही, बल्कि वह आज हमारी सोच, हमारे निर्णय, हमारे संबंध और हमारी महत्वाकांक्षाओं को पूरी तरह अपने वश में कर चुकी है। आज का मनुष्य जिस सबसे बड़े भ्रम में जी रहा है, वह यह है कि वह स्वतंत्र है। लेकिन सच यह है कि उसकी सारी क्रियाएं इन्द्रियों के संकेतों पर आधारित हैं — स्वाद का आदेश मिला, तो भोजन; दृश्य अच्छा लगा, तो देखने लगे; शब्द मीठे लगे, तो सुनते रहे; शरीर को सुख चाहिए, तो बिना मूल्यांकन के भागने लगे। और यही है वह बिंदु जहाँ आत्मा का पतन आरंभ होता है।

“पाप का प्रचंड तांडव हो रहा है और विकराल पापी तैयार हो रहा है…”

यह वाक्य सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि सामाजिक सत्य का आईना है। आज का व्यक्ति इतना आत्मकेन्द्रित और मोहग्रस्त हो गया है कि उसे न अपने पापों का बोध है, न अपने आचरण की समीक्षा करने की फुर्सत। वह जो कर रहा है, वही उसे सही लगता है — क्योंकि माया ने उसके विवेक को बंद कर दिया है।

  1. वह अब अपने ही झूठ में जी रहा है, और उसी झूठ को “सत्य” कह रहा है।
  2. जो कुछ इन्द्रियों को भाता है, वही “सार्थक” लगता है।
  3. जो कुछ आत्मा को झकझोरे, वह “पुराना विचार” कहलाता है।

और इसी अंधकार में खोते हुए, वह भूल जाता है कि Yash aur Jeevan ki Asliyat केवल इन्द्रियों की संतुष्टि नहीं, बल्कि आत्मा की तृप्ति में छिपी होती है। वह जितना अधिक माया के पीछे दौड़ता है, उतना ही अधिक खोखला होता जाता है। हमने समाज को एक ऐसा मॉडल बना दिया है जिसमें जितना अधिक भोग कर सको, उतना सफल हो। लेकिन हम यह भूल गए हैं कि आत्मा के पास केवल भोगने का नहीं, समझने और उद्धार करने का भी एक उद्देश्य है।

  1. माया अब केवल एक बाहरी आकर्षण नहीं, बल्कि सोच का संचालनकर्ता बन चुकी है।
  2. इन्द्रियाँ आत्मा पर शासन कर रही हैं — यही पतन की शुरुआत है।
  3. पाप अब पाप नहीं लगता — क्योंकि विवेक ही बंद हो गया है।
  4. सच्चा यश आत्मा की तृप्ति में है, न कि भोग की दौड़ में।

Yash aur Jeevan ki Asliyat को जानने के लिए सबसे पहले माया के जाल को समझना और उससे स्वयं को अलग करना आवश्यक है। जब तक मनुष्य माया के अधीन है, तब तक वह चाहे जितना भी यश पा ले, वह अस्थायी और खोखला ही रहेगा।

गीता का मार्ग: आत्म-उद्धार और आत्म-शत्रु का भेदन

श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं है — वह जीवन के सबसे गहरे प्रश्नों का उत्तर देने वाली चेतना है। जब अर्जुन युद्धभूमि में खड़े हो गए थे, वह सिर्फ युद्ध से नहीं, बल्कि जीवन की विडंबनाओं से जूझ रहे थे और ठीक उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिए, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥”

– गीता 6.5

इस श्लोक में वह सार छिपा है, जो Yash aur Jeevan ki Asliyat की गहराई तक जाता है। भगवान कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं का उद्धार स्वयं करे। न कोई गुरु, न कोई परिवार, न कोई समाज — केवल मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु। आज का मनुष्य बाहरी यश, पद और उपलब्धियों की दौड़ में इतना उलझ गया है कि वह अपने ही मन, इन्द्रियों और अहम के अधीन हो गया है। परिणामस्वरूप, वह स्वयं के ही विरुद्ध खड़ा हो गया है। और जब व्यक्ति स्वयं के विरुद्ध खड़ा हो जाए, तब उसका पतन निश्चित हो जाता है।

गीता हमें यह सिखाती है कि जो व्यक्ति शीत और ग्रीष्म, सुख और दुख, मान और अपमान में स्थिर बना रहे — वही वास्तव में जितेन्द्रिय कहलाता है। ऐसा व्यक्ति माया के प्रलोभनों से अछूता रहकर आत्मा की यात्रा पर अग्रसर हो सकता है और यही बिंदु है जहाँ से शुरू होती है असली समझ — कि Yash aur Jeevan ki Asliyat केवल तब समझ में आती है जब मनुष्य स्वयं पर विजय पाता है। शांति, संतुलन और समत्व — यही योग के तीन स्तंभ हैं। जैसे वायु रहित स्थान पर दीपक की लौ निश्चल रहती है, वैसे ही मोह और भ्रम से रहित योगी जीवन की गति में स्थिर रहता है।

गीता हमें केवल यह नहीं बताती कि क्या गलत है — वह यह भी सिखाती है कि कैसे अपने भीतर की उलझनों को सुलझाया जाए। जब मनुष्य अपने चंचल मन को नियंत्रण में करता है, तब वही मन आत्मा का साधन बनता है। लेकिन जब वही मन भटकता है, तो वह पतन का साधन बनता है।

  1. आत्म-उद्धार का मार्ग केवल आत्म-संयम और विवेक से निकलता है।
  2. मनुष्य स्वयं का सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु है।
  3. जितेंद्रिय बनना ही जीवन के विकारों से मुक्ति पाने का उपाय है।
  4. Yash aur Jeevan ki Asliyat को समझने का सबसे सुंदर मार्ग — गीता में मिलता है।

गृहस्थ आश्रम: सबसे कठिन तप और आत्मा की कसौटी

जब हम जीवन की यात्रा के चार आश्रमों की बात करते हैं — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास — तो सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण और तपस्वी आश्रम गृहस्थ आश्रम होता है। यह वह स्थान है जहाँ आत्मा को सबसे अधिक परीक्षा देनी पड़ती है, और जहाँ सबसे अधिक अवसर भी होते हैं निखरने के। कई लोग सोचते हैं कि सन्यासी होना कठिन है, लेकिन सच्चाई यह है कि सन्यास लेना आसान है — गृहस्थ रहकर विवेक, संयम, सेवा और सत्य को निभाना कठिन है। Yash aur Jeevan ki Asliyat को यदि सबसे गहरे में समझना है, तो गृहस्थ आश्रम से बड़ा कोई शिक्षक नहीं।

गृहस्थ जीवन में दिन-प्रतिदिन की समस्याएँ — बच्चों की जिम्मेदारियाँ, आर्थिक दबाव, पारिवारिक विवाद, सामाजिक अपेक्षाएँ — ये सब व्यक्ति के धैर्य और आत्मबल की कसौटी बनते हैं। यह जीवन एक तप है, एक यज्ञ है, जिसमें हर दिन अपनी इच्छाओं, अपनी सुविधाओं और अपने अहम की आहुति देनी पड़ती है और यही पीड़ा आत्मा को गढ़ती है। यदि हम “सोना” हैं तो यह तप हमें निखारेगा, यदि हम केवल धातु हैं, तो यही आग हमें गलाकर बहा देगी।

आज की दुनिया में हम बच्चों को कठिनाइयों से बचाते हैं, उन्हें हर सुख जल्दी देना चाहते हैं। उन्हें खिलौने, स्क्रीन, और त्वरित सुख उपलब्ध कराते हैं — लेकिन वे जीवन की पीड़ा का सामना करना नहीं सीख पाते और जब जीवन की कोई असफलता आती है, तो वे टूट जाते हैं। यह विफलता की नहीं, संस्कारों की हार होती है। गृहस्थ आश्रम वह स्थान है जहाँ आत्मा सीखती है कि प्रेम क्या है, त्याग क्या है, और सेवा कैसे की जाती है। माता-पिता होना केवल जिम्मेदारी नहीं, एक आध्यात्मिक भूमिका है — जिसमें संतान को केवल सुविधा नहीं, विवेक और वैराग्य भी देना आवश्यक है।

यही कारण है कि कोई धर्मगुरु एक जन्म में नहीं बनता — उसकी आत्मा कई आश्रमों से होकर गुजरती है और गृहस्थ आश्रम उनमें सबसे निर्णायक होता है।

  1. गृहस्थ जीवन तपस्वियों की तपशाला है — दिखावे की दौड़ नहीं।
  2. पीड़ा आत्मा को बनाती है, और हर कठिनाई एक अवसर है आत्म-विकास का।
  3. बच्चों को केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य और ‘ना’ का मूल्य भी सिखाना चाहिए।
  4. Yash aur Jeevan ki Asliyat गृहस्थ आश्रम के संघर्षों में ही परख में आती है।

बच्चों की परवरिश में संस्कार या सुविधा?

आज के समय में अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को सब कुछ देना चाहते हैं — सबसे अच्छे खिलौने, सबसे तेज़ मोबाइल, सबसे महंगे कपड़े और सबसे आरामदायक ज़िंदगी। लेकिन जब यह देने की होड़ केवल “सुविधा” तक सीमित हो जाती है और “संस्कार” पीछे छूट जाते हैं — तो एक पूरी पीढ़ी भीतर से खोखली होने लगती है।

हमारे बच्चे मिट्टी के गोले की तरह होते हैं। अब यह माता-पिता पर निर्भर करता है कि वे उस गोले से हनुमान जी बनाते हैं या रावण, माँ दुर्गा बनाते हैं या कंस। जब बच्चा किसी चीज़ की ज़िद करता है, तो हम तुरंत कहते हैं — “ये लो बेटा, चुप हो जाओ” — लेकिन यह “चुप कराना” दरअसल उसे दिशाहीन करना है।

  1. “No” सुनना बच्चों के लिए एक आवश्यक अनुभव है।
  2. जब कोई माता-पिता “ना” कहता है और कारण समझाता है,
  3. तभी बच्चा तर्क करना, अनुशासन पाना और जीवन के अस्वीकार को स्वीकारना सीखता है।

लेकिन आज तो बच्चे को तुरंत चुप कराने के लिए हम मोबाइल थमा देते हैं — “ये लो, यूट्यूब देखो, गेम खेलो।” तीन-तीन साल के बच्चे अब गुस्सा शांत करने के लिए स्क्रीन पर उंगली घुमा रहे हैं, लेकिन माता-पिता की आँखों में नहीं झांक पा रहे। फिर जब वही बच्चा किशोर होता है और दुनिया के किसी “ना” को सहन नहीं कर पाता, तो हम हैरान होते हैं — यह हमारी परवरिश की कीमत हैYash aur Jeevan ki Asliyat को जब हम बच्चों की नज़रों से देखना शुरू करते हैं, तो हमें समझ आता है कि असली सफलता यह नहीं कि बच्चा क्या बन गया — बल्कि यह है कि वह कैसा इंसान बना।

आज हर कोई अपने “अधिकारों” की बात कर रहा है — लेकिन “कर्तव्य” कोई नहीं सिखा रहा। हम संविधान की “फंडामेंटल राइट्स” पढ़ाते हैं, लेकिन “फंडामेंटल ड्यूटीज़” भूल जाते हैं और यही असंतुलन आगे चलकर एक ऐसी पीढ़ी पैदा करता है जो अपने कर्तव्यों से अनभिज्ञ होती है, लेकिन अपने अधिकारों के लिए क्रोधित।

  1. परवरिश सुविधा से नहीं, संस्कारों से होती है।
  2. “ना” कहना और तर्क समझाना बच्चों की सोच को मजबूत करता है।
  3. स्क्रीन से रिश्ता जितना गहरा होगा, माता-पिता से उतनी दूरी बढ़ेगी।
  4. अधिकार से पहले कर्तव्य सिखाना सबसे बड़ा संस्कार है।
  5. Yash aur Jeevan ki Asliyat को बच्चों की समझ में लाना, उनके भविष्य को बचाना है।

ज्ञान ही अमर है: “विद्या धन” का वास्तविक अर्थ

इस संसार में हम बहुत-से धन इकट्ठा करते हैं — जमीन, पैसा, गाड़ी, पद, यश। लेकिन एक क्षण आता है जब हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि इनमें से कुछ भी हमारे साथ नहीं जाएगा। उस क्षण पर केवल एक चीज बचती है — ज्ञान। वही ज्ञान जिसे न कोई चुरा सकता है, न कोई छीन सकता है, और न ही कोई बाँट सकता है।

“न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥”

इस श्लोक का अर्थ है: “ज्ञान ऐसा धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाइयों में बाँटा जा सकता है और न ही यह कोई बोझ होता है। बल्कि, जितना इसे खर्च किया जाए, यह उतना ही बढ़ता है। यह विद्या रूपी धन सभी धनों में श्रेष्ठ है।” आज हम अपने बच्चों को पैसा कमाना सिखा रहे हैं, लेकिन ज्ञान अर्जित करना नहीं। हम उन्हें ट्रॉफी, ट्यूशन, और टेबल्टॉप टेक्नोलॉजी तो दे रहे हैं — लेकिन “सोचने की शक्ति”, “सही और गलत में भेद”, और “आत्मा की यात्रा” का बोध नहीं दे पा रहे।

ज्ञान केवल पढ़ाई से नहीं आता — वह जीवन के अनुभव, त्याग, सेवा और आत्म-चिंतन से भी आता है। आज जितने भी सच्चे आध्यात्मिक गुरु हैं, वे इस जन्म में नहीं बने — उनकी आत्मा ने कई जन्मों, आश्रमों और कठिनाइयों से होकर यह बोध अर्जित किया है और इसमें सबसे बड़ी भूमिका होती है — गृहस्थ जीवन के अनुभवों और आत्मिक ज्ञान की पूँजी। यही है Yash aur Jeevan ki Asliyat — कि यश माया है, पद अस्थायी है, और केवल ज्ञान ही है जो आत्मा के साथ अगले पड़ाव तक जाता है।

जब व्यक्ति ज्ञान को जीवन का मूल बनाता है, तो उसका निर्णय विवेकपूर्ण होता है, उसकी दृष्टि गहराई से भरी होती है, और उसकी आत्मा तैयार होती है — मृत्यु के बाद भी आगे की यात्रा के लिए।

  1. विद्या ऐसा धन है जो नष्ट नहीं होता — वह आत्मा के साथ चलता है।
  2. ज्ञान केवल किताबी नहीं — अनुभव, विवेक और आत्मिक उन्नति का फल है।
  3. जो ज्ञान देता है, वह अमर हो जाता है — जो यश चाहता है, वह भुला दिया जाता है।
  4. Yash aur Jeevan ki Asliyat को समझना है, तो “विद्या” को सबसे बड़ा निवेश मानना होगा।

कृष्ण से सीखिए: जीवन को उत्सव की तरह कैसे जिएं

जब हम कृष्ण का नाम लेते हैं, तो आँखों के सामने कई रूप आते हैं — बाल रूप में माखनचोर, गोपियों के संग रास करते हुए माधव, अर्जुन को गीता उपदेश देने वाले योगेश्वर, और अंत में एक शांत, मुस्कुराते हुए चक्रधारी पुरुषोत्तम। लेकिन इन सब रूपों की एक ही आत्मा है — जीवन को स्वीकार करना, उसकी हर स्थिति में रहकर भी मोह से मुक्त रहना। कृष्ण कभी भागे नहीं — न युद्ध से, न प्रेम से, न अधर्म से और न ही पीड़ा से। उन्होंने जीवन के हर मोड़ पर संघर्ष को भी अपनाया और उसे लीला बना दिया।

यही है “Yash aur Jeevan ki Asliyat” — जब जीवन कठिन हो, तो उसे त्यागो मत, बल्कि उसके भीतर भी सौंदर्य खोजो। आज हमारे पास जैसे ही कोई दुःख आता है, असफलता आती है, या यश छिनता है — तो हम टूट जाते हैं। हम समझते हैं कि सब कुछ समाप्त हो गया। लेकिन कृष्ण सिखाते हैं कि जब जीवन रुक जाए, तब उसमें भी नृत्य करो; जब अंधकार हो, तब भी रास रचाओ; जब मोह छा जाए, तब भी भीतर से मुक्त रहो।

उत्सव का अर्थ केवल हँसी या नृत्य नहीं होता — उत्सव एक दृष्टिकोण है, जो कठिनाइयों को भी स्वीकार कर लेता है, और उन्हें जीते हुए भी आनंद में रहना सीख जाता है। आज यदि जीवन में कोई कठिनाई आए, तो उसे दुःख नहीं, दर्शन की तरह देखना चाहिए — “यह भी जाएगा,” और उसके पीछे कोई बड़ी सीख छिपी है। कृष्ण कभी शोक नहीं करते — न जन्म पर, न मृत्यु पर — वे बस जीते हैं, हर स्थिति में।हम अपने बच्चों को, अपने परिवार को, और स्वयं को यदि यह सिखा पाएं — कि जीवन केवल जीत-हार का खेल नहीं है, बल्कि एक अविराम उत्सव है, तो हम सच्चे अर्थों में सफल होंगे।

  1. श्रीकृष्ण का जीवन संघर्ष से भरा था, लेकिन उन्होंने कभी शिकवा नहीं किया।
  2. रासलीला केवल भोग नहीं, मोह से मुक्ति और समत्व का प्रतीक है।
  3. जीवन को उत्सव की तरह जीना तब संभव है जब व्यक्ति मोह से ऊपर उठे।
  4. यही Yash aur Jeevan ki Asliyat है — कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं, केवल ईश्वर और आत्मा का संबंध।

निष्कर्ष: जीवन एक प्रश्न है — और उत्तर भी तुम्हें ही बनना है

जब हम पूरे जीवन की कहानी को एक क्षण में समेटते हैं — तो पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पहचान… सब कुछ धुंधला पड़ने लगता है। आख़िर में बचता है सिर्फ वह प्रश्न — जिसे कोई और नहीं, बल्कि हमारी ही आत्मा हमसे पूछती है:

“तूने क्या किया?”

इस प्रश्न का उत्तर हमारे बैंक बैलेंस से नहीं, बल्कि कर्मों की किताब से आता है।

  1. हमने किसके आँसू पोंछे?
  2. किसे सच्चे दिल से प्रेम किया?
  3. किस समय किसी के लिए खुद को भुला दिया?
  4. और सबसे ज़्यादा — कितना सच में जिए?

Yash aur Jeevan ki Asliyat यही है कि यश, माया और सफलता केवल बाहरी आवरण हैं — आत्मा की परिपक्वता, सेवा की भावना और सत्य का अभ्यास ही वास्तविक पूँजी है।

आज आवश्यकता है — दिखावे की दुनिया से बाहर निकलकर अपने भीतर की यात्रा शुरू करने की। बच्चों को केवल “देने” से नहीं, “ढालने” से तैयार करना है। गृहस्थ जीवन को तपस्या समझना है — न कि एक सुविधा की फैक्ट्री और जब हम गीता के रास्ते पर चलकर अपने मन, इन्द्रियों और अहंकार को नियंत्रित कर लेते हैं — तब हमें वह शांति प्राप्त होती है जो किसी सिंहासन या ताज से नहीं मिलती।

जब जीवन मृत्यु के प्रकाश में खड़ा होता है, तब पता चलता है कि
असली मूल्य “यश” में नहीं, योग्यता और यथार्थ में है।

तो अब समय है एक ठहराव लेने का — आत्मा से जुड़ने का, यश के पीछे भागने की बजाय असली अर्थ के साथ जीवन जीने का।

“जीवन एक प्रश्न है — और उत्तर भी हमें ही बनना है।
जो उत्तर हम अभी नहीं देंगे,
वह प्रश्न मृत्यु के क्षण में गूंजेगा।”

अंतिम संदेश

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